२१४ हो, ऐसी भ्रान्ति अन्दर साथमें आ जाती है।
कोई नुकसान नहीं करता है और कोई लाभ भी नहीं करता है। दोनोंमें उसकी जूठी मान्यता है। विभावका कारण.... परिणतिमें जो दुःखका कारण विभाव परिणतिमें है, उसके कार्यमें उसे अनिष्ट आदि सब फलमें आते ही रहता है। उसका कारण ऐसा है। अंतरमें उन दोनोंके साथ अन्दर एकत्वबुद्धि है ही। नुकसान माने तो भी एकत्वबुद्धि है और लाभ माने तो भी एकत्वबुद्धि ही है। दोनोंके साथ एकत्वबुद्धि है।
परन्तु दोनों इष्ट-अनिष्ट-से छूटकर मैं ज्ञायक हूँ, मुझे कोई परपदार्थ इष्ट-अनिष्ट नहीं करता। मेरा ज्ञायक है वही मुझे लाभरूप है। उस तरफ परिणति जाय तो उस ओर शुभभाव आये, परन्तु शुभभाव कहीं आदरने योग्य नहीं है। आदरणीय तो एक चैतन्यतत्त्व ही आदरणीय है। इष्ट-अनिष्ट-से छूट जाना और एक ज्ञायककी परिणति प्रगट करनी वही लाभरूप है। अनिष्टमें भी अपनत्व हो गया और इष्टमें अपनत्व आ ही जाता है। दोनोंमें आ जाती है। लाभ-नुकसान दोनोंमें माना इसलिये दोनोंमें अपनत्व आ जाता है। उसने मुझे नुकसान किया, इसलिये उसमें उसे एकत्वबुद्धि हो गयी है। दोनों-से भिन्न पडकर अंतरमें ज्ञायककी परिणति प्रगट करके इष्ट-अनिष्ट मुझे कुछ नहीं है। अन्दर ज्ञायक है वही मुझे उपादेय है, ये सब त्यागने योग्य है।
साधकदशामें शुभभावना साथमें आ जाती है। ज्ञायक परिणति यथार्थ जो है सो है। यथार्थ परिणति प्रगट करके उसे शुभभावना (आती है)।