१८ कहनेमें आता है।
समाधानः- रागी पुदगल है अर्थात जीवका स्वभाव राग नहीं है। रागी पुदगल है यानी राग एकान्तसे पुदगल है ऐसा नहीं है। एकान्तसे पुदगल ही राग है और जीवका कुछ है ही नहीं, ऐसा नहीं है। व्यवहार यानी जीव कुछ करता ही नहीं है और एकान्तसे शुद्ध ही है, तो फिर उसे मोक्ष-केवलज्ञान होना चाहिये, उसे शुद्धताका वेदन होना चाहिये। शुद्धताका वेदन तो है नहीं। द्रव्यदृष्टिसे शुद्ध है परन्तु पर्यायमें रागकी परिणति स्वयं करता है। द्रव्यदृष्टिसे ऐसा कहनेमें आता है कि राग है वह पुदगल है। रागको जड कहा, द्रव्यदृष्टिकी अपेक्षासे। परन्तु पर्याय अपेक्षासे जीवमें-चैतन्यमें वह परिणति- रागकी परिणति होती है। पर्याय अपेक्षासे पर्याय है ही नहीं ऐसा नहीं है। अशुद्ध पर्याय होती ही नहीं हो तो शुद्धताका वेदन होना चाहिये। शुद्धताका वेदन तो है नहीं। इसलिये पर्यायदृष्टिसे जीव स्वयं रागका कर्ता होता है। अज्ञान अवस्थासे।
मुमुक्षुः- मैं प्रतिसमय जाणन.. जाणन.. जाणन.. स्वभावी हूँ, वहाँ तक पकडमें आता है, फिर आगे पकडमें नहीं आता। मैं जाननेवाला हूँ, ज्ञानस्वरूप हूँ, इतना बुद्धिपूर्वक विचार हो सकता है कि जो जाननेवाला है, इस विकल्पके पीछे जो जाननेवाला ज्ञान है, यहाँ तक विचार होता है, फिर आगे नहीं चलता।
समाधानः- जाननहारमें ही सब भरा है। ज्ञान लक्षण आत्माका असाधारण है। असाधारण लक्षण है यानी उस ज्ञान लक्षण द्वारा आत्मा पहचानमें आता है। लेकिन उस ज्ञायक लक्षणमें, उस लक्षणसे ज्ञायक पहचानमें आता है। ज्ञायक अदभुत स्वरूप है, ज्ञायक अनन्त गुणसे भरा अदभुत स्वरूपी ज्ञायक है। ज्ञान लक्षण उसे वास्तविक ग्रहण हो तो उसे ज्ञायककी महिमा आये बिना नहीं रहती। ज्ञानलक्षण यथार्थरूपसे ग्रहण होना चाहिये। स्वयं विचारसे नक्की करे कि यह ज्ञानलक्षण है, यह शरीर मैं नहीं हूँ, यह विभाव मैं नहीं हूँ, ये शुभाशुभ विकल्प मेरा स्वरूप नहीं है। पुरुषार्थकी मन्दतासे चैतन्यमें होता है, लेकिन वह मेरा स्वरूप नहीं है। मेरा स्वरूप तो जो ज्ञायक जाननेवाला है वही मैं हूँ।
उसे पहचानकर अन्दरसे यथार्थ प्रतीति होवे, अन्दरसे पहचानकर आये तो ज्ञायककी महिमा आये बिना नहीं रहती। ज्ञायक अदभुत महिमासे भरा है। उसकी प्रतीति करके मैं ज्ञानलक्षण हूँ, यह ज्ञायक है वही मैं हूँ, ऐसी निःशंकरूपसे प्रतीति आये तो उसका भेदज्ञान हो। तो उसका भेदज्ञान निरंतर वर्ते कि यह विकल्प मैं नहीं हूँ, लेकिन मैं यह ज्ञायक हूँ। ज्ञायकका जोर बढता जाये तो उसमें विकल्प टूटकर स्वानुभूति हो तो उसे चैतन्यस्वरूप अनुभवमें आये। उसकी यथार्थ प्रतीति होनी चाहिये।
ज्ञानलक्षणसे यथार्थ लक्षणसे लक्ष्य पहचानमें आना चाहिये। वह लक्षण गुणमात्र नहीं,