००६
सविकल्पदशामें उपयोग बाहर विकल्पकी ओर आया, तो ज्ञायककी परिणति, चारित्रसहितकी परिणति है। मुनिको विशेष चारित्र है। उन्हें सविकल्पताके कालमें भी अमुक कषायका नाश हो गया है, लीनताका एकदम जोर वर्तता है, तो भी उपयोग बाहर है। उपयोग स्वरूपमें लीन हो (तब तो) स्वयं स्वरूप चैतन्यलोकमें चला गया। उसका वेदन ही एक चैतन्यकी ओर है। बाहर विभावकी ओर...
केवलज्ञानीकी बात अलग है। स्वयं स्वरूपमें लीन हो गये, उपयोग जम गया, ज्ञानकी ऐसी निर्मलता (प्रगट हो गयी)। सब विकल्प छूट गये, अबुद्धिपूर्वकका भी सब छूट गया, इसलिये सहजपने लोकालोकका ज्ञान होता है। तो भी स्वयं निर्मलपने स्वयंमें लीन हैं। उसमें उनका अदभूत आनन्द तो वैसा ही रहता है। लोकालोक ज्ञात हो तो भी रहता है। उन्हें लोकालोक नुकसान नहीं करता।
... और रागका कर्ता अनादिसे मानता है। कौन करवाता है? स्वयं करता है। स्वयंके पुरुषार्थकी मन्दतासे स्वयं करता है। पुदगल निमित्त है और रागकी पर्याय, अशुद्ध पर्याय स्वयं एकत्वबुद्धिसे अनादिसे कर रहा है। पर पुदगल उसे नहीं करवाता। स्वयं करता है।
मुमुक्षुः- होता तो है जीवके परिणाममें?
समाधानः- हाँ, जीवके परिणाममें होता है।
मुमुक्षुः- पुदगलद्रव्य उसका निमित्त है?
समाधानः- पुदगलद्रव्य निमित्त है। जीवके परिणाममें राग होता है।
मुमुक्षुः- दृष्टान्तमें ऐसा ले कि लाल रंग फूलका स्वभाव है और स्फटिकमणिमें वह झलकता है।
समाधानः- झलकता है, परन्तु स्फटिककी योग्यतासे झलकता है। स्फटिककी योग्यतासे (झलकता है)। लाल और हरे फूल है, उसका जबरजस्ती प्रतिबिंब नहीं झलकता। (यदि ऐसा हो तो) दूसरी वस्तुमें भी होना चाहिये, लोहेमें अथवा दूसरी वस्तुमें नहीं होता। जिसका स्वभाव प्रतिबिंबरूप झलकनेका है, जिसकी योग्यता है उसमें वह होता है। इसलिये जीवमें वैसी पुरुषार्थकी मन्दता है तो स्वयं वैसी मन्दतासे रागरूप परिणमता है।
जड राग और चैतन्य राग, ऐसे उसके दो भेद हैं। जीवक्रोध और जडक्रोध, ऐसा कहनेमें आता है। पुदगल, क्रोधरूप कदापि नहीं होता। लेकिन उसे जडक्रोध और जीवका क्रोध कहनेमें आता है। चैतन्यमें भी क्रोध होता है, जडक्रोध, ऐसे उसके दो भेद है। शास्त्रमें आता है।
मुमुक्षुः- समयासरमें आता है, रागी तो पुदगल है, व्यवहारसे जीवके परिणाम