२२८ हिसाबसे। उसकी भावना थी।
समाधानः- अंतरमें विकल्प-से छूटना उसमें तो पुरुषार्थ चाहिये।
मुमुक्षुः- वह अत्यंत कठिन लगता है।
समाधानः- वह तो पुरुषार्थ-से (होता है)। वैसा पुरुषार्थ प्रगट होना, उतनी उग्रता हो तो होता है।
मुमुक्षुः- कैसी उग्रता?
समाधानः- उग्रता ही चाहिये। कहीं चैन न पडे, विकल्पमें उसे चैन न पडे। कहीं चैन न पडे तो होता है। विकल्पकी जालमें भी चैन न पडे, ऐसा होना चाहिये। कहीं सुख न लगे। अंतरमें-से प्राप्त न हो तबतक चैन न पडे, उतनी उग्रता अंतरमें होनी चाहिये।
.. मुझे बहुत आनन्द लगता है, मुझे बहुत ऐसा लगता है, ऐसे जो विकल्प आते हैं, वह विकल्पमें ही खडा है। मुझे अंतरमें बहुत भावमें बहुत आनन्द आता है, मुझे इसका बहुत रस आता है, मुझे ऐसा बहुत होता है। वह सब विकल्प ही है, अन्दर विकल्पका आनन्द है। चैतन्यका अस्तित्व-द्रव्यमें-से आनन्द चाहिये, वह आनन्द अलग है, वह तो सहज आनन्द है। उसे विकल्प-से आनन्द नहीं होता, वह तो सहज आनन्द है। विकल्प नहीं है कि मुझे बहुत आनन्द आया या मुझे यह प्राप्त हुआ, ऐसा विकल्प भी जहाँ छूट जाता है। जो सहज आनन्द प्रगट होता है, वह अंतर-से भिन्न पड जाता है। अन्दर भिन्न होकर जो आनन्द आता है, सहज आनन्द जो आता है। उसे कृत्रिमता नहीं होती कि मुझे इसमें बहुत आनन्द आया।
जिसकी आनन्द पर भी दृष्टि नहीं है, परन्तु सहज आनन्द आता है। एक अपना अस्तित्व ग्रहण करता है। आनन्द सहज अन्दरमें-से प्रगट होता है। विकल्प करके आनन्द नहीं वेदना पडता। ... तो प्रगट होता है। विकल्पकी दिशा है, उसकी पूरी दिशा पलट जानी चाहिये।
भिन्न पडना वह पुरुषार्थ अलग रह जाता है। अभी तो क्षण-क्षणमें भेदज्ञान (करे कि) विकल्प-से भी मैं भिन्न हूँ। पहले तो ऐसा भेदज्ञान होना चाहिये कि विकल्प- से भी मैं भिन्न हूँ, ऐसी ज्ञायककी धारा पहले होनी चाहिये, तो निर्विकल्प हो। विकल्प- से भी मैं तो भिन्न हूँ। ऐसी अंतरमें-से ज्ञायककी धारा (प्रगट होनी चाहिये)।