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मुमुक्षुः- उसके पहले भेदज्ञानकी परिणति कैसे उत्पन्न हो?
समाधानः- वह करे तो हो। जब-जब क्षण-क्षणमें विकल्प आवे, आनन्द आवे, शुभभाव हो, सबसे मैं भिन्न ही हूँ। ऐसी भेदज्ञानकी परिणति होनी चाहिये।
मुुमुक्षुः- अभी हम ऐसे विचार करे... समाधानः- बीचमें आये बिना नहीं रहता। जबतक स्वयं अभी शुभभावकी भूमिकामें है, शुभभाव तो आते हैं, भक्ति आवे, उल्लास आवे, ज्ञान-से भरा, आनन्द-से भरा हुआ एक तत्त्व है। जैसे ये पुदगल वस्तु है, वैसे एक चैतन्य भी वस्तु है, परन्तु वह ज्ञानस्वभाववाला है, आनन्द स्वभाववाला, अनन्त गुणवाला है। उसे पहचाननेके लिये अनादि- से तो विभावमें एकत्वबुद्धि की है, राग-द्वेष इत्यादिमें, और धर्म बाहरसे माना है कि बाहर-से कुछ शुभभाव करें, कुछ क्रियाएँ करें तो धर्म होता है, ऐसा माना है। ऐसा तो अनन्त कालमें किया है। उससे शुभभाव बँधकर पुण्य बँधे तो देवलोक होता है। भवभ्रमण तो मिटता नहीं।
भवभ्रमण तो अन्दर आत्माको पहचाने तो मिटे। अंतर दृष्टि करके आत्माका भेदज्ञान करे तो वह मिटता है। अन्दर भेदज्ञान करनेका उपाय एक गुरुदेवने बताया है। उसका बारंबार विचार करे, उसकी गहरी लगन लगाये, उसकी महिमा करे तो हो। उसका गहरा विचार करना चाहिये, उसकी जिज्ञासा जागृत करनी चाहिये कि आत्मा कैसे समझमें आये।
जो महापुरुष हुए, इस पंचमकालमें गुरुदेव पधारे और उन्होंने मार्ग बताया कि अंतर दृष्टि करना। बाकी बाहर-से थोडा कर ले और थोडा त्याग कर ले, उसमें धर्म मान लिया। शुभभाव यदि अंतरमें हो, शुभभाव रहे तो पुण्य बँधे। पुण्य बाँधकर देवलोकमें गया। ऐसा देवलोक अनन्त बार प्राप्त हुआ है। परन्तु भवका अभाव हो, आत्माका अंतर अनुपम आनन्द, आत्मा मुक्त स्वरूप ही है, ऐसे आत्माको उसने पहचाना नहीं है। विभाव-से भिन्न पडे कि मैं तो ज्ञायक आत्मा जाननेवाला साक्षीस्वरूप हूँ। उसे अंतरमें आत्माकी महिमा आये तो आत्माकी पहिचान हो। विचार, वांचन, पुरुषार्थ, रुचि, लगनी उसीकी लगनी चाहिये। कितनोंको अंतर दृष्टि करवायी, रुचि जागृत करवायी।