२३८ प्राप्त हो, वह होता है। बाकी सब रस उसे ऊतर जाता है। एक आत्मार्थका प्रयोजन (होता है)। मुझे कैसे आत्माकी प्राप्ति हो? प्रत्येक कार्यमें उसे वह प्रयोजन होता है। शुभभाव आये, देव-गरु-शास्त्रकी भक्ति (आये)। बाकी सब उसे मन्द पड जाता है। शुभभाव तो शुद्धात्मा प्राप्त हो तो भी आते हैं, परन्तु उसका भेदज्ञान वर्तता है। भेदज्ञान हो तो भी शुभभाव होते हैं। परन्तु वह अपना स्वभाव नहीं है। शुद्धात्माकी पहचान कैसे हो? शुद्धात्माकी भावना, उसकी लगन, उसकी महिमा, उसके लिये विचार, वांचन सब होता है। दूसरा सब रस कम हो जाता है। एक देव-गुरु-शास्त्र तरफकी शुभभावना रहती है और आत्मा कैसे प्राप्त हो, उस तरफकी लगन रहती है।
मुमुक्षुः- अनुभूति दशाका अंतरंग स्वरूप कैसा होता है?
समाधानः- अंतरंग तो वाणीमें आता नहीं। विकल्प छूटकर अंतरमें जो वेदन हो, वह तो स्वयं अनुभव कर सकता है। जिसमें अकेला आत्मा ही है। विकल्प तरफका उपयोग छूट जाता है, विकल्प छूट जाता है। वीतराग नहीं हुआ है इसलिये अबुद्धिपूर्वक होता है। बाकी अंतर्मुहूर्तमें उपयोग फिर-से बाहर आता है। क्षणभरके लिये उपयोग अपनेमें जम जाता है। जो स्वरूप अपना अस्तित्व चैतन्यका है, ज्ञायकका अस्तित्व है उसमें उसका उपयोग जम जाता है। चैतन्य जिस स्वभाव-से है, अनन्त गुण-से भरपूर और आनन्द-से भरा हुआ आत्मा, आनन्द गुण स्वयंसिद्ध उसीका है। ज्ञानगुण उसका है, ऐसे अनन्त गुण-से भरा हुआ आत्मा, उसमें उसका उपयोग लीन हो जाता है, विकल्प छूट जाता है। विकल्पकी आकुलता छूटकर उसका उपयोग स्वरूपमें जम जाता है।
स्वानुभूति तो वचनमें (आती नहीं), वह स्वयं वेदन करके जान सकता है। वचनमें तो अमुक प्रकारसे आता है। उसकी दिशा पूरी बदल जाती है। जो विभावकी बाहरकी दिशा थी, वह पलटकर स्वभावकी दिशा कोई अलग ही दुनियामें चला जाता है। वह उसकी स्वानुभूति है। ये विभावकी दुनिया नहीं, ये लौकिक दुनिया नहीं, परन्तु अलौकिक दुनियामें वह चला जाता है और स्वभावमें एकदम लीनता हो जाती है। उसमें जो उसका स्वभाव है, उस जातकी परिणति हो जाती है, वह उसे अनुभूतिमें वेदनमें आती है और वह उसे जान सकता है, अनुभव कर सकता है। आनन्दसे भरा, ज्ञानसे भरा, चैतन्य चमत्कार देव, चमत्कारी देव स्वयं विराजता है। उसकी उसे स्वानुभूति होती है।
मुमुक्षुः- जो कुछ कह सको वह आप कह सकते हो। बाकी उसका अंतरंग स्वरूप तो...
समाधानः- अमुक प्रकार-से आये। विकल्प छूटकर निर्विकल्प दुनियामें चला जाता है। और उसमें अपना जो चैतन्यका अस्तित्व है, वह उसे स्वानुभुतिमें आता है। अनन्त गुणका भण्डार आत्मा है, वह उसे स्वानुभूतिमें आता है। जैसे सिद्ध भगवान हैं, वह