समाधानः- रुचिकी।
मुमुक्षुः- रुचि गहराईसे जागृत होनेके लिये क्या करना?
समाधानः- स्वयंको ही करनी है। स्वयं ही विभाव-से छूटकर करे कि नक्की करे कि ये स्वभाव ही आदरणीय है, ये आदरणीय नहीं है। विभाव आदरणीय नहीं है। विभावमें सुख नहीं है। उसके साथ एकत्वबुद्धि (चलती है)। सब जूठा अयथार्थ है। यथार्थ तो आत्मा तत्त्व उससे भिन्न होने पर भी एकत्व मान रहा है, वह जूठ ही माना है। स्वयंने माना है उसे, यथार्थ ज्ञान और निश्चय करके स्वयं रुचिको दृढ करता जाय। उसमें ज्ञान, रुचि, पुरुषार्थ सबका सम्बन्ध है। यथार्थ ज्ञान-से निश्चय करना चाहिये कि बाहरमें कहीं सुख नहीं है। सुख आत्मामें है। दोनों तत्त्व भिन्न है। ये तत्त्व भिन्न है, ये तत्त्व भिन्न है। ऐसे यथार्थ निश्चय करके रुचिका जोर बढाये।
मुमुक्षुः- ये सब विकल्पमें बैठनेके बावजूद रुचि जोर करे? सिर्फ विकल्पमें बैठे उतना चलेगा नहीं।
समाधानः- पहले तो विकल्प होता है। निर्विकल्प तो बादमें होता है। अतः पहले तो वह अभ्यासरूप ही होता है। विकल्परूपसे अभ्यास हो परन्तु गहराई-से हो, उसका ध्येय ऐसा होना चाहिये कि ये अभ्यास विकल्पका है, अभी अन्दर गहराईमें जाना बाकी है। इस प्रकार ध्येय ऐसा रखना चाहिये। तो गहराईमें जानेका प्रयत्न करे। विकल्पमात्रमें अटक जाय कि मैंने बहुत किया तो आगे नहीं बढ सकता। अभी गहराईमें जाना बाकी है। ये विकल्पमात्र अभ्यास है, उससे भी आगे बढना है। ऐसा यदि ध्येय रखे तो आगे बढना हो।
मुमुक्षुः- विकल्पमें ध्येय ध्रुवका रखकर अभ्यास करना?
समाधानः- हाँ, ध्रुवका ध्येय रखना चाहिये, तो आगे होता है।
मुमुक्षुः- तो ध्रुवका लक्ष्य रखकर सुननेकी जो बात है, वह विकल्पात्मक भूमिका ही है न?
समाधानः- है तो विकल्पात्मक भूमिका, परन्तु ध्येय ध्रुवका होना चाहिये। ध्येय ध्रुवका होना चाहिये। आगे बढनेके लिये। निर्विकल्प होना है। ऐसा होना चाहिये।
मुमुक्षुः- अकेला ध्रुवका ध्येय रखकर श्रवण करे तो भी कार्य होनेमें विलंब होनेका कारण क्या?
समाधानः- सबमें एक ही कारण है। अपने पुरुषार्थकी मन्दताके सिवाय..
मुमुक्षुः- रुचि कम पडती है।
समाधानः- सब अपना कारण है। अपने पुरुषार्थकी मन्दता है। सबका कारण