२५२ एक ही है। वह कारण-पुरुषार्थ नहीं करता है, इसलिये खडा है, वहीं खडा है।
मुमुक्षुः- विभावमें कहीं न कहीं अटक जाता है।
समाधानः- कहीं न कहीं अटक जाता है। मुमुुक्षुः- वह पकडमें आती है कि विभावमें मेरी अटक रह जाती है?
समाधानः- वह स्वयं पकडे कि मैं यहाँ रुकता हूँ। मेरी गति यहाँ बाहरमें रुकती है, मैं आगे नहीं बढ सकता हूँ।
मुमुक्षुः- अपने परिणामकी जाँच करनी।
समाधानः- अपने परिणाम-से पकड सकता है।
मुमुक्षुः- क्योंकि कितनी ही बार तो ऐसा होता है कि इतना-इतना मिला और कार्य नहीं हुआ तो क्या होगा? ऐसा हो जाता है।
समाधानः- भावना तो ऐसी रहे न कि इतना हुआ, फिर भी आगे क्यों नहीं बढता है?
मुमुक्षुः- गुरु मिले।
समाधानः- गुरु मिले, अन्दर रुचि होती है, सत्य लगता है तो भी आगे नहीं बढता है।
मुमुक्षुः- अन्दरसे कहीं शंका नहीं होती है। इतना अन्दर-से सत्य लगता है।
समाधानः- परन्तु परिणतिका पलटना अभी बाकी है। भेदज्ञानकी परिणति प्रगट करनी, उसका पलटा हो, स्वानुभूति हो तो भी उसका चारित्र तो बाकी रहता है। चारित्र बाकी रहता है।
मुुमुक्षुः- प्रथम सीढीमें तो सम्यग्दर्शन प्राप्त करना.. समाधानः- सम्यग्दर्शन। वह मुख्य है। वह मार्ग पर चढ गया, बस। वह पलट गया।
मुमुक्षुः- इतना-इतना उत्साह होने पर भी कार्य नहीं हो रहा है तो जितना भी थोडा-बहुत अन्दरमें आगे बढा है, वह भाविमें कार्यकारी हो कि न हो?
समाधानः- अपने संस्कार वैसे गहरे हो तो भाविमें हो सकता है।
मुमुक्षुः- हो ही अथवा न भी हो?
समाधानः- स्वयंने यथार्थ कारण दिया हो तो होता ही है। कारणमें फर्क हो, ऊपर-ऊपर-से हो तो नहीं होता। बाकी स्वयं अन्दर गहराई-से (करता हो), यह करना ही है और यह करने पर ही छूटकारा है, ऐसे संस्कार अन्दर दृढ हो तो भाविमें कार्य हुए बिना रहता ही नहीं।
देशना ग्रहण होती है। देशनालब्धि अन्दर यथार्थ ग्रहण हुयी हो, तो कभी भी