२६० जा सकते हैं। परन्तु यह पंचमकाल है इसलिये कुछ दिखता नहीं है। मनुष्य कहीं जा नहीं सकते हैं, परन्तु देव तो जा सकते हैं।
देव तो भगवानका दर्शन करने, वाणी सुनने, भगवानका कल्याणक जहाँ होते हों वहाँ देव जाते हैं। जहाँ प्रतिमाएँ, मन्दिर हों वहाँ दर्शन करने (जाते हैं)। शाश्वत प्रतिमा है, वहाँ दर्शन करने जाते हैं।
मुमुक्षुः- माताजी! साक्षात पधारे हो तो भी आपको स्वप्न लगे और साक्षात पधारे हो, ऐसा भी हो सकता है न।
समाधानः- अपनेको तो स्वप्न लगे। गुरुदेव तो...
मुमुक्षुः- साक्षात पधारे।
समाधानः- देवके रत्नमय वस्त्र था, ऐसे थे।
मुमुक्षुः- वातावरण तो ऐसा हो गया था कि मानों गुरुदेव साक्षात पधारे हो।
समाधानः- वातावरण तो ऐसा हो गया था। उस दिन दूज थी, परन्तु सबका उल्लास ऐसा था।
मुमुक्षुः- खास तो आपको विरहका वेदन हुआ और उसी रात गुरुदेव साक्षात पधारे।
समाधानः- गुरुदेव तो मौजूद ही है, क्षेत्र-से दूर है। शरीर बदल गया, बाकी गुरुदेव तो गुरुदेव और उनका आत्मा तो मौजूद ही है। देवमें है।
समाधानः- बहुत सुना है वह करना है। आत्माकी पहचान कैसे हो? ये शरीर.. आत्मतत्त्व एक अंतरमें भिन्न है। जो ज्ञानसे भरा है, जिसमें आनन्द भरा है, अनन्त ु गुण भरे हैं, ऐसा आत्मा है। उसकी महिमा, उसकी लगन लगाने जैसा है। उसके लिये उसका वांचन, विचार सब वही करना है। उसकी अपूर्वता लाकर। बाकी रूढिगतरूप- से जीवने बहुत बार सब किया, परन्तु कुछ अपूर्वता नहीं लगी। कुछ अपूर्व करना है। इस प्रकार उसकी लगन लगाकर, उसका वांचन, विचार, अभ्यास करने जैसा है।
बाकी आत्मा, एक आत्माको लक्ष्यमें रखकर, आत्मा पर दृष्टि करके, उसे पहचानकर सब आत्मामें-से प्रगट होता है। आत्मा ही अनन्त निधि-से भरा है। जो भी प्रगट होता है वह आत्माके आश्रय-से प्रगट होता है। ज्ञान, दर्शन, चारित्रसब आत्माके आश्रय- से प्रगट होता है। उसे बाहर-से निमित्त देव-गुरु-शास्त्र होते हैं। भगवान मार्ग बताये। गुरुदेवने इस पंचमकालमें मार्ग बताया। निमित्तमें मार्ग बतानेवाले होते हैं, करना स्वयंको है। शास्त्रमें वह सब है, परन्तु शास्त्रका रहस्य भी गुरुदेवने खोला है।
मुमुक्षुः- कहीं न कहां माताजी! अटक जाते हैं। आपकी तरह धारावाही .. नहीं होता, ..