सम्यग्दर्शनरूप होता है, फिर चारित्रदशा आती है। उसमें विशेष निर्जरा होती है। पहले अमुक निर्जरा होती है, विशेष निर्जरा मुनिदशामें होती है। वह सब पर्याय है।
परन्तु द्रव्य अपेक्षा-से शुद्धात्मा अनादि (मुक्तस्वरूप ही है)। ऐसा द्रव्य और पर्याय दोनों वस्तुका स्वभाव ही है। जो प्रगट पर्याय होती है मुक्तिकी, उसे पर्याय कहते हैं। और अनादिअनन्त द्रव्य तो मुक्तस्वरूप है। मुक्तस्वरूप द्रव्य है, परन्तु वेदन नहीं है। उसका स्वयंको स्वानुभूतिका वेदन नहीं है, पर्याय प्रगट नहीं हुयी है। द्रव्य तो शुद्ध है, द्रव्यमें कहीं अशुद्धताका प्रवेश नहीं हुआ है। द्रव्य तो शुद्ध है। परन्तु पर्यायका वेदन नहीं है। स्वानुभूतिका वेदन कहाँ है? पर्याय प्रगट हुए बिना वेदन नहीं होता। इसलिये जब उसकी स्वानुभूतिकी दशा प्रगट होती है, स्वानुभूतिका वेदन होता है।
वह स्वानुभूति विशेष बढने पर वीतरागता होती है इसलिये उसे पूर्ण वेदन होता है। वह प्रगट मुक्त दशा है। ये शक्तिरूप मुक्त दशा है। वह व्यक्तिरूप मुक्तदशा है। इसलिये द्रव्य और पर्यायका मेल है। द्रव्य और पर्याय वस्तुका स्वरूप है। इसलिये शुद्ध पर्याय नहीं है, तबतक वेदन नहीं है। शुद्धपर्याय प्रगट हुयी, इसलिये उसे स्वानुभूति, वीतरागदशाका वेदन होता है। इसलिये वह प्रगट मुक्त दशा है, यह शक्तिरूप मुक्त दशा है।
समाधानः- .. उस वक्त यहाँ सजावट आदि की थी, स्वाध्याय मन्दिरमें बहुत सुन्दर था। गुरुदेवका जीवन-दर्शन, गुरुदेवके चरण, सब बहुत अच्छा लगता था। वहाँ देखने गयी तो वह सब सजावट देखकर ऐसा लगा कि गुरुदेव यहाँ विराजते हो तो ये सब शोभे। ऐसे विचार आते थे, भावना होती रही। उस दिन घर आकर पूरी रात ऐसा हुआ, गुरुदेव पधारो, पधारो ऐसा भावनामें रहा। फिर प्रातःकालमें ऐसा स्वप्न आया कि गुरुदेव देवलोकमें-से देवके रूपमें पधारे। सब देवका ही रूप था। झरीके वस्त्र, हार रत्नके, रत्नके वस्त्र थे।
गुरुदेवने कहा कि ऐसा कुछ नहीं रखना, बहिन! मैं तो यहीं हूँ। मैं यही हूँ, ऐसा दो-तीन बार कहा। आप यहाँ हो ऐसे आपकी आज्ञा-से मान लें, परन्तु ये सब दुःखी हो रहे हैं। उसका क्या? गुरुदेव तो मौन रहे। स्वप्न तो इतना ही था। परन्तु उस वक्त सबको इतना उल्लास था कि मानों गुरुदेव विराजते हों और उत्सव होता हो, ऐसा था। गुरुदेव देवके रूपमें पधारे। ऐसा स्वप्न था। पहचाने जाते थे, गुरुदेव देवके रूपमें भी गुुरुदेव ही है, ऐसा पहचाना जाता था।
मुमुक्षुः- मुख गुरुदेवका?
समाधानः- मुख देवका था। परन्तु पहचान हो जाय कि गुरुदेव देव हुए हैं और देवके रूपमें पधारे हैं। ऐसा कुछ नहीं रखना, बहिन! मैं तो यहीं हूँ, यहीं हूँ, यहीं हूँ। ऐसा तीन बार कहा। देवमें तो ऐसी शक्ति होती है कि जहाँ जाना हो वहाँ