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समाधानः- .. मन-से हो ऐसा नहीं है, संवर तो सहज है। जिसकी सहज दशा है उसे सहज संवर ही है। मनको रोकना, मनको रोकना वह तो व्यवहार-से परिभाषा है। अन्दर संवरस्वरूप जो स्वयं परिणमित हो गया है, भेदज्ञानरूप, उसे सहज संवर ही है। विग्रहगतिमें जो सम्यग्दर्शन लेकर जाय तो उसे जो सहज भेदज्ञान है, उसे मनके साथ सम्बन्ध होता है, ऐसा तो कुछ नहीं है। इसलिये उसे संवर तो साथमें होता है। ... संवर तो होता है। संवर तो विग्रहगतिमें होता है। मुनिओंको विशेष संवर (होता है)। चारित्र अपेक्षा-से संवरकी बात है। गुप्ति-से संवर होता है।
मुमुक्षुः- ... आनन्दका अनुभव क्या होगा? फिर आठ ही दिन वहाँ पर क्यों रहे?
समाधानः- आठ दिन उसे तो भगवान मिल गये। उनका शरीर अलग, विदेहक्षेत्रका शरीर अलग, वहाँ-के संयोग अलग, उनकी मुनिदशा, मुनिदशा तो अंतरमें-से पालनी है, परन्तु उनका शरीर कितना? पाँचसौ धनुषका शरीर, वहाँ महाविदेह क्षेत्रमें कितने बडे शरीर होते हैं। उन सबके साथ.. मुनिदशा पालनी वह सब मेल (नहीं बैठता)। आठ दिन-से ज्यादा रह नहीं सके। देव ही उन्हें वापस यहाँ छोड गये, ऐसा कहा जाता है।
चारित्रदशा अन्दर मुनिदशा है न। ज्यादा रहना मुश्किपल है, आहार-पानीकी दिक्कत हो जाय। एक बालक जैसे दिखे। इतने बडे शरीर होते हैं। मुनि हैं, अन्दरमें छठवें- सातवें गुणस्थानमें झुलते हैं। पंच महाव्रतका पालन करना, सब दिक्कत होती है। मुनिदशाके योग्य,.. वहाँका आहार हजम होना ही मुश्किल पडे, ऐसे शरीरवालेको।
मुमुक्षुः- संवर, निर्जरा और मोक्षको पर्याय बोला है। तो पर्याय बोला है तो आत्मा तो शुद्ध त्रिकाली ध्रुव स्वभाव जो है, वह तो मुक्तिरूप-स्वरूप ही है, तो उसको पर्यायकी अपेक्षा-से संवर, निर्जरा, मोक्ष कहनेमें आता है?
समाधानः- शुद्धात्मा तो द्रव्यदृष्टि-से देखो तो शुद्धात्मा तो अनादिअनन्त मोक्षस्वरूप- मुक्तस्वरूप है। उसमें संवर, निर्जरा साधककी पर्याय कहनी वह व्यवहार है। परन्तु वह उसकी पर्याय है। क्योंकि संवर, निर्जरा सब साधककी पर्याय है। उसमें पहले संवर