Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-६)

२६२ तो शास्त्र रचते हैं, भगवानके दर्शन करते हैं। मुनिओंको भी शुभभाव आते हैं। परन्तु वे तो छठवें-सातवें गुणस्थानमें झुलते हुए आत्माकी स्वानुभूति प्रतिक्षण करते हैं। और सम्यग्दृष्टिको शुभभाव आवे तो (उसे) भेदज्ञानकी धारा वर्तती है और स्वानुभूति उसे भी होती है।

जिज्ञासाकी भूमिकामें भी शुभभाव आते हैं। जिनेन्द्र देवकी भक्ति, गुरुकी भक्ति, शास्त्र स्वाध्याय आदि तो होता है। परन्तु ध्येय एक आत्माका होना चाहिये। ये सब होता है, परन्तु पुण्यबन्ध है। उससे आत्माका स्वरूप भिन्न है। यह ध्येय होना चाहिये। परन्तु वह नहीं हो तबतक साथमें तो होता ही है। शुभभाव तो शुद्धात्मामें पूर्णरूप- से स्थिर न हो जाय, तबतक शुभभाव होते हैं। परन्तु उसे श्रद्धा ऐसी यथार्थ होनी चाहिये कि मेरा आत्मा इन सब भावों-से भिन्न है। ये सब भाव आकुलतारूप हैं, मैं शुद्धात्मा भिन्न हूँ। ऐसी श्रद्धा होनी चाहिये।

मुनिओं और आचायाको भी भगवानकी भक्ति आती है। स्तोत्रकी रचना करते हैं, शास्त्रकी रचना करते हैं। वह सब होता है। गृहस्थाश्रममें हो वहाँ अशुभभाव-से बचनेको शुभभाव तो आते हैं। परन्तु ध्येय एक आत्माका होना चाहिये-शुद्धात्माका।

गुरुदेवने जो साधना की, भगवानने जो पूर्ण स्वरूप प्राप्ति किया, शास्त्रमें जो वस्तुका स्वरूप कोई अपूर्व रीत-से आता है, उसका विचार, वांचन सब होना चाहिये।

मुमुक्षुः- हमारा ध्येय तो आत्मा है। परन्तु प्राप्त करनेके लिये कोई सरल विधि? कोई विशेष?

समाधानः- उसकी सरल विधि तो उसका ध्येय होना चाहिये। अंतरमें उसकी लगनी, महिमा, पुरुषार्थ, बारंबार उसका अभ्यास होना चाहिये। वह न हो तबतक देव- गुरु-शास्त्रकी महिमा, वह सब होता है। परन्तु उसे बारंबार पुरुषार्थ, अभ्यास होना चाहिये। आत्मा कैसे प्राप्त हो? उसकी लगनी, महिमा, खटक (लगे)। बाहरमें कहीं उसे रुचि या रस अंतरमें तन्मयपने आता नहीं। अन्दरमें आत्मा जिसे महिमारूप लगे, बाहरमें कहीं महिमा न लगे। बाहर उसे महिमा नहीं आती। अंतर आत्मामें ही कोई अपूर्वता है, ऐसी उसे श्रद्धा होनी चाहिये।

(गुरुदेवने स्पष्ट करके) बता दिया है, कहीं भूल न पडे ऐसा। तैयारी स्वयंको करनी है, पुरुषार्थ स्वयंको करना है। बारंबार उसीका अभ्यास, उसीका रटन, उसका मनन करना है।

समाधानः- .. पहले-से सातवें-से एकदम जोर-से चढते हैं, परन्तु क्षय करते हुए नहीं चढते हैं। एकदम वीतराग दशा हो जाती है। परन्तु ढका हो ऐसा। फिर वह सातवेमें आ जाते हैं। कोई चौथेमें आ जाय। ऐसे आते हैं। परन्तु वे चढ जाते हैं।