२६४ करके दृष्टि चैतन्य पर स्थापनी चाहिये। विकल्पका भेद तो जाननेके सब आता है। परन्तु दृष्टि तो चैतन्य पर होनी चाहिये।
... तो दृष्टि छूटे। बाहरमें जिसको महत्व लगे, उसकी दृष्टि भीतरमें चिपकती नहीं। भीतरमें महत्व लगे तो दृष्टि वहाँ चिपके।
मुमुक्षुः- अभी कर लेने जैसा है। देह छूटनेके बात तो कहाँ...
समाधानः- बाहरमें सब धर्म मान बैठे थे।
मुमुक्षुः- गृहीत मिथ्यात्वमें धर्म मानते थे।
समाधानः- हाँ, उसमें मानते थे। उसका अर्थ भीतरमें-से खोल-खोलकर गुरुदेवने बहुत बताया है। सूक्ष्म-सूक्ष्म करके। कोई जानता ही नहीं था। पंचास्तिकायका अर्थ कौन कर सकता था?
मुमुक्षुः- समयसारके लिये तो बोलते थे कि वह तो मुनियोंका ग्रन्थ है, गृहस्थोंका है ही नहीं।
समाधानः- गृहस्थोंका है ही नहीं ऐसा कहते थे।