२६६ नहीं है, यह हित नहीं है, यह धर्म नहीं है, ऐसा करके कषाय फिके किये।
जिसे आत्माकी रुचि हो उसके कषाय सहज ही फिके पड जाते हैं। जिसे आत्मा ही रुचता है, दूसरा कुछ रुचता नहीं, आत्मा ही जिसे इष्ट है, उसे बाह्य कषाय सुखरूप नहीं लगते। वह तो उसे फिक पड ही जाते हैं। जो आत्मार्थी हुआ, जिसे आत्माका प्रयोजन है उसे कषायोंमेंं तीव्रता नहीं रहती, मन्दता हो जाती है। वह उससे पीछे हट जाता है।
मुमुक्षुः- अर्थात पहले-से ही ज्ञायकके लक्ष्यकी शुरूआत...?
समाधानः- हाँ, ज्ञायकके लक्ष्य-से शुरूआत होती है। वही शुरूआत है। उसमें सब समा जाता है। रुचि, कषायकी मन्दता, सब उसमें समा जाता है। ज्ञायकके लक्ष्य- से शुरूआत करनी है। मैं कौन हूँ? मैं तत्त्व कौन हूँ? उस तत्त्वका निर्णय करना। विचार करके उसका निर्णय करे। ज्ञायकके लक्ष्य बिना अनन्त कालमें बहुत कुछ किया, परन्तु मूल तत्त्व ग्रहण किये बिना बिना अंकके शून्य जैसा हुआ। किसके लिये करता हूँ? चैतन्यतत्त्वका अस्तित्व ग्रहण नहीं किया, मात्र शुभभाव हुए हैं।
.. लक्ष्य करे तो अंतरमें आनन्द भरा है। अनन्त ज्ञान अंतरमें है। स्वानुभूति सब अंतरमें रही है। भेदज्ञान करे। विकल्प टूटकर आत्मा निर्विकल्प तत्त्व है, उसकी स्वानुभूति अंतर दृष्टि करने-से होती है, बाहर-से नहीं होता। बाहर-से सब किया। सब रट लिया, पढ लिया, समझे बिना ध्यान किया, सब किया। परन्तु आत्माका अस्तित्व ग्रहण किये बिनाका वह सब मात्र शुभभावरूप हुआ।
मुमुक्षुः- भेदज्ञान कैसे करना?
समाधानः- भेदज्ञान चैतन्यको पहचानने-से होता है। मैं यह चैतन्य (हूँ)। अपना अस्तित्व ग्रहण करे कि मैं यह ज्ञायक ज्ञानस्वरूप आत्मा हूँ। यह सब मुझ-से भिन्न है। ये शरीर और विभावभाव जो अंतरमें भाव होते हैं, वह स्वभाव भी मेरा नहीं है, मैं उससे भिन्न हूँ। ऐसे ज्ञायक, मैं चैतन्य ज्ञायक ही हूँ, ऐसा निर्णय करके उसका अस्तित्व ग्रहण करे। फिर उसका अभ्यास करे। पहले तो अभ्यासरूप होता है। सहज दशा तो बादमें होती है।
अभ्यास करे कि मैं ज्ञायक हूँ। ज्ञायककी ही उसे महिमा आये, बाकी सब महिमा छूट जाय। ज्ञायकमें सब भरा है। उसे अनुभूतिके पहले वह वेदनमें नहीं आता, परन्तु वह निर्णय करता है कि ज्ञायकमें ही सब है। ज्ञान-ज्ञायक पदार्थ पूरा महिमावंत है। ज्ञायकका अभ्यास करे कि मैं सर्वसे भिन्न, भिन्न, भिन्न ऐसा क्षण-क्षणमें उसीका अभ्यास करे। तो उसमें उसे भेदज्ञान होता है। उसका अभ्यास करे। और शुभभावमें सच्चे देव- गुरु और शास्त्र उसे शुभभावनामें होते हैं। अंतरमें ज्ञायकका भेदज्ञान कैसे हो? बारंबार