२८०
ज्ञायकका अभ्यास करे। .. परद्रव्यका क्या? सब नक्की करके फिर ज्ञायकका अभ्यास करे।
मुमुक्षुः- वस्तुका बंधारण समझनेमें कुछ क्षति रह जाय तो ज्ञायकको पकडना मुश्किल पडे या ज्ञायकके झुकावमें वह क्षति सुधर जाती है?
समाधानः- उसकी ज्ञानमें भूल हो तो ... परन्तु रुचि यदि उसे बराबर हो कि मुझे ज्ञायक ही ग्रहण करना है। विचार करके भी उसकी ज्ञानमें भूल हो तो ज्ञानकी भूल निकल जाती है, उसकी रुचि यथार्थ हो तो।
मुझे चैतन्य क्या पदार्थ है, यह नक्की करना है। बाहर कहीं उसे रुचि लगे नहीं, स्वभावकी ही रुचि लगे। तो विचार करके ज्ञानमें भूल हो तो भी निकल जाती है, यदि उसे यथार्थ लगन लगी हो तो। ज्ञानमें भूल हो तो निकल जाती है।
.. बाहर-से मिलेगा, बाहर-से खोजता है। अंतरमें सब है। उसकी उसे प्रतीति नहीं है, रुचि नहीं है, इसलिये बाहर-से खोजता है।
मुमुक्षुः- ...
समाधानः- (क्या) पदार्थ है, क्या वस्तु है? किसमें धर्म है? किसमें ज्ञान है? किसमें दर्शन है? सम्यग्दर्शन किसमें है? चारित्र किसमें है? सब नक्की करे। चारित्र मात्र बाहर-से नहीं आता। चारित्र चैतन्यके स्वभावमें है।
मुमुक्षुः- चैतन्यमें यदि रुचि हो तो आगे बढे।
समाधानः- तो आगे बढे। ज्ञान, दर्शन, चारित्र सब आत्मामें भरा है। बाहर तो मात्र शुभभाव होते हैं। वह तो पुण्यबन्धका कारण है। अन्दर स्वभावमें-से सब प्रगट होता है, ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि सब।
समाधानः- .. रुचि लगाने जैसी है, पुरुषार्थ वह करने जैसा है, सब करने जैसा है। परन्तु स्वयं बाहरमें रुक जाता है।
मुमुक्षुः- आत्मा प्राप्त करने-से जो आनन्द हो, उसका शब्दमें वर्णन हो सके ऐसा आनन्द है?
समाधानः- शब्दमें वर्णन नहीं होता। आत्माका स्वभावका आनन्द तो अनुपम है। उसे कोई उपमा लागू नहीं पडती, जगतके कोई पदार्थकी। क्योंकि ये बाहरका है वह तो रागमिश्रित जड पदार्थ नजर आते हैं। आत्माका जो स्वभाव चैतन्यमूर्ति, उसमें जो चैतन्यका आनन्द है और चैतन्यका आनन्द जो अंतरमें आनन्द सागर स्वतः स्वभाव ही उसका भरा है। उस पर दृष्टि करके, उसका भेदज्ञान विभाव-से भिन्न होकर, विकल्प छूटकर अन्दर जो निर्विकल्प तत्त्व प्रगट हो, उसकी कोई उपमा बाहरमें नहीं है। वह अनुपम है। उसकी कोई उपमा नहीं है।