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जगत-से जात्यांतर अलग ही आनन्द है। उसकी जात किसीके साथ मिलती नहीं। कोई देवलोकका सुख या चक्रवर्तीका राज या किसीके साथ उसका मेल नहीं है। वह सब विभाविक है, सब रागमिश्रित है। जिसके साथ राग रहा है, उसके साथ मेल नहीं है। अन्दर ऊच्चसे ऊच्च शुभभाव हो तो भी वह शुभभाव है। शुभभावके साथ भी उसका मेल नहीं है। शुभभाव-से भी भिन्न शुद्धात्मा है।
मन्द कषाय हो। मैं ज्ञान हूँ, मैं दर्शन हूँ, मैं चारित्र हूँ। पहले शुरूआतमें वह सब विकल्प आते हैैं, आत्म स्वभावको पहिचाननेके लिये, तो भी वह विकल्प मिश्रित जो राग है, उसके साथ आत्माके आनन्दका मेल नहीं है। आत्माका आनन्द तो उससे अलग है।
मुमुक्षुः- अपने-से तिर्यंचका कुछ ज्यादा पुरुषार्थ होगा तभी उसे अनुभूति होती होगी।
समाधानः- उस अपेक्षा-से, अनुभूति उसने प्राप्त की उस अपेक्षा-से उसका पुरुषार्थ ज्यादा है ऐसा कह सकते हैं।
मुमुक्षुः- उसे तो क्षयोपशमका उतना उघाड भी नहीं है।
समाधानः- उघाडके साथ उसे सम्बन्ध नहीं है। प्रयोजनभूत तत्त्वको जाने इसलिये आत्माकी स्वानुभूति प्रगट होती है। ज्यादा शास्त्रका ज्ञान हो या ज्यादा शास्त्र पढे हो, उसके साथ (सम्बन्ध नहीं है)।
.. आत्माका स्वरूप मैं चैतन्य पदार्थ, अपने द्रव्य-गुण-पर्याय और परपदार्थके, उतना मूल प्रयोजनभूत जाने तो उसमें स्वानुभूति होती है। उसका भेदज्ञान करे कि यह शरीर सो मैं नहीं हूँ, ये विभाव शुभाशुभभाव भी मेरा स्वरूप नहीं है। मैं उससे भिन्न, अनन्त गुण-से भरपूर, अनन्त शक्तियों-से भरा आत्मतत्त्व हूँ। ऐसा विकल्प नहीं, परन्तु ऐसे अपने अस्तित्वको ग्रहण करके उसका भेदज्ञान करे। उस भेदकी सहज दशा प्रगट करके अन्दर विकल्प छूटकर स्थिर हो जाय, उसकी श्रद्धा-प्रतीत करके, ज्ञान करके उसमें स्थिर हो जाय तो उसे भेदज्ञान निर्विकल्प स्वानुभूति होती है। उसमें ज्यादा शास्त्र अभ्यासकी जरूरत नहीं है।
वह तो नहीं हो तबतक उसे शुभभावमें रहनेके लिये विशेष ज्ञानकी निर्मलता हो, इसलिये शास्त्रका अभ्यास करे। परन्तु ज्यादा जाने तो ही हो, ऐसा सम्बन्ध नहीं है। उसे क्षयोपशमके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। उसे अपनी अंतर परिणति पलटनेके लिये प्रयोजनभूत तत्त्वको जाने, उसकी श्रद्धा करे और उसमें स्थिर हो तो उसे होता है।
शिवभूति मुनि कुछ नहीं जानते थे। गुरुने कहा कि मातुष और मारुष। राग-द्वेष मत कर। वह शब्द भूल गये। गुरुने क्या कहा था वह शब्द भूल गये। फिर एक बाई