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दाल धो रही थी। मेरे गुरुने यह कहा था। ये छिलका अलग और दाल अलग। वैसे आत्मा भिन्न है और ये विभाव भिन्न है। ऐसे गुरुका आशय पकडकर अन्दर भेदज्ञान करके अंतरमें स्थिर हो गये तो स्वानुभूति तो हुयी, अपितु इतने आगे बढ गये कि उन्हें केवलज्ञान प्रगट हो गया। मूल प्रयोजनभूत तत्त्व जाने, इसलिये आगे निकल जाता है।
मुमुक्षुः- मैं तलोद हमेशा जाता हूँ। एक भाई कहते हैं, सोनगढमें कुछ नहीं है। इसलिये मैंने कहा, चलिये सोनगढमें। क्या है, क्या नहीं है। आप कुछ बताईये कि सोनगढमें क्या है?
समाधानः- सोनगढमें गुरुदेव बरसों तक रहे। गुरुदेवकी पावन भूमि है। गुरुदेव जब विराजते थे तब तो कुछ अलग ही था। ये गुरुदेवकी भूमि है। यहाँ देव-गुरु- शास्त्रका सान्निध्य है। और चैतन्यको जो पहिचाने, उसकी रुचि करे तो वह रुचि हो सके ऐसा है।
मुमुक्षुः- यहाँ अनुभूति पुरुष स्वयं ही विराजमान है। माताजी स्वयं ही है। उससे विशेष क्या होगा। लोग विरोध करते हैं, तो वास्तवमें उसे अनुभूतिका जोर नहीं है, यह नक्की होता है।
समाधानः- सबके भाव स्वतंत्र है। प्रत्येक आत्मा स्वतंत्र है। सबके भाव सबके पास।
मुमुक्षुः- .. और पण्डितोंने..
समाधानः- सब शिष्योंने सुना है, सबने स्वीकार किया है। सबने प्रमोद-से स्वीकृत किया है।
मुमुक्षुः- फूलचन्दजी एकबार ऐरोप्लेनकी बात करते थे कि मैं ऐरोप्लेनमें बैठा था। फिर जब हिलने लगा तो मेरे पास गुरुदेवका फोटो था। मैंने कसकर गुरुदेवका फोटो पकड लिया, उतनेमें तो प्लेन एकदम स्थिर हो गया। फूलचन्दजी स्वयं कहते थे।
समाधानः- जात-जातका कहे।
मुमुक्षुः- जब गुरुदेव यहाँ विराजते थे तब।
समाधानः- हाँ, विराजते थे तब। प्रभावना योग, गुरुदेवकी वाणी और उनका ज्ञान ऐसा था कि उसे देखकर लोगोंको आश्चर्य होता था कि ये कोई तीर्थंकरका जीव ही है। ऐसा होता था।
मुुमुक्षुः- उपादान-निमित्तकी बात गुरुदेवने जो अंतरमें-से प्रकाशित की, वह बात ही कहाँ थी।
समाधानः- कहाँ थी। सब बात स्पष्ट की। उपादान-निमित्त, द्रव्य, गुण, पर्याय,