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मुमुक्षुः- ज्ञानसत्ता अनुमान-से ख्यालमें आती है कि ये सब ज्ञात हो रहा है तो कोई जाननेवाला भी है। संवेदन, अज्ञानीको संवेदनरूप-से ख्यालमें नहीं आता है। राग-से भिन्न कर सके या अन्य ज्ञेयों-से भिन्न कर सके, ऐसा संवेदनरूप-से ख्यालमें नहीं आता है। इसलिये लक्षण ख्यालमें नहीं आता है तो फिर लक्ष्य पर कैसे जाना?
समाधानः- वह अपनी क्षति है। अनुमान ज्ञान भी ऐसा होता है कि वह अनुमान ज्ञान भी सत्य अनुमान होता है। पहले यथार्थ अनुमान करके लक्षणको ग्रहण करे तो संवेदन तो अन्दर निर्विकल्प दशा होती है तब संवेदन होता है। उसके पहले जो ज्ञान लक्षण विद्यमान ही है, असाधारण ज्ञानलक्षण स्वयं ही है, अन्य नहीं है, वह ज्ञानलक्षण असाधारण रूप है, वह ज्ञानलक्षण तो स्वयंको लक्ष्यमें आये ऐसा ही है। परन्तु वह उसे ग्रहण नहीं होता है, मात्र अनुमान-अनुमान होता है। वह मात्र (इसलिये कि) यथार्थ प्रकार-से उसे ग्रहण नहीं करता है।
निर्विकल्प दशामें यथार्थ संवेदन होता है। उसके पहले भी स्वयं ज्ञायकरूप-से स्वयं विद्यमान ही है, उसका कहीं नाश नहीं हुआ है, उसके अस्तित्वका नाश नहीं हुआ है और उसकी ज्ञायकता तो ज्ञात हो ही रही है। परन्तु वह स्वयं जानता ही नहीं है। परन्तु अंतरमें उसे उतनी लगे तो ग्रहण होता है, उसे लगती ही नहीं। बुद्धि- से अनुमान करता है। परन्तु वह अनुमान भी वह यदि यथार्थ प्रकार-से अनुमान, युक्ति- से ग्रहण करे तो (हो सकता है)। अनुमान, युक्ति सब यथार्थ होता है, परन्तु उसके साथ-साथ वह आगे जानेका प्रयत्न करे कि मैं ज्ञायक रूप ही विराजमान हूँ। तो ग्रहण हो सके ऐसा है। परन्तु वह करता नहीं है इसलिये होता नहीं है। बुद्धि-से करके छोड देता है, परन्तु अपना अस्तित्व ग्रहण नहीं करता है और करने जाय तो स्वयं सामान्य क्षणिक ग्रहण करके छोड देता है। उसका अभ्यास लंबाता नहीं।
ज्ञायकरूप अभ्यासका जीवन अपना बनाता ही नहीं। जो अनादिका एकत्वबुद्धिका जीवन है और विभावमय, शुभाशुभ परिणामकी धारारूप जो जीवन चला जाता है, वैसे ही अनादिका जैसे चलता है, वैसे चला जाता है। तीव्रमें-से मन्द, तीव्र-मन्द, तीव्र-मन्द ऐसे चला जाता है, परन्तु उसका जीवन जो ज्ञायकरूप पलटना चाहिये, वह