पलटता ही नहीं, उसमें स्वयंका ही कारण है।
मुमुक्षुः- ज्ञायकका जीवन नहीं जीता है, उसका अर्थ क्या?
समाधानः- ज्ञायकरूप परिणति नहीं करता है। मैं ज्ञायक हूँ, उस जातकी अंतर परिणति। जैसे विभावकी परिणति सहज हो रही है, ऐसे ज्ञायककी परिणति स्वयं सहजरूप करता ही नहीं, जीवन जीता नहीं उसका अर्थ यह है। उस जातका अभ्यास करे तो जीवन सहज हो न। अभ्यास ही थोडा करके छोड देता है। फिर अनादिका प्रवाह है उसमें चला जाता है। उसकी खटक रखे, रुचि रखे, ऐसा करता है परन्तु अभ्यास नहीं करता है। रुचि ऐसी रखता है कि यह ज्ञायक है वही करने जैसा है, ये विभाव मेेरा स्वभाव नहीं है, ऐसा बुद्धिमें रखता है, लेकिन उस रूप परिणति या अभ्यास नहीं करता है, छोड देता है।
(कोई) कर नहीं देता है। उलझनमें-से स्वयंको पलटना पडता है। स्वयंको ही करना है। भूख लगे तो खानेकी क्रिया स्वयं ही करता है। उसमें किसीका इंतजार नहीं करता है। उसे भूखका दुःख सहन नहीं होता है। खानेका प्रयत्न स्वयंं ही करता है। जिस जातका अन्दर स्वयंको वेदन होता है, (तो प्रयत्न भी) स्वयं ही करता है। वैसे यदि वास्तविक वेदन जागे तो उसका पुरुषार्थ स्वयं ही करता है। किसीका इंतजार नहीं करता।
मुमुक्षुः- गुरुदेवकी जन्म जयंतिके समय आपश्रीने गुरुदेवको स्वप्नमें देखा।
समाधानः- (गुरुदेवका) जीवन-दर्शन, चरण आदि सब था (तो ऐसा हुआ), इतना सुन्दर है, ऐसेमें गुरुदेव पधारे तो बहुत अच्छा लगे। ये स्वाध्याय मन्दिरकी शोभा कुछ लगे। गुरुदेव विराजते हो तो कुछ अलग लगे। ऐसे ही विचार आते थे। गुरुदेव पधारे, पधारे, पधारो ऐसा होता था। इसलिये प्रातःकालमें ऐसा हुआ कि मानों गुरुदेव स्वप्नमें देवमें-से पधारे। देवमें-से देवके रुपमें और देव जैसे वस्त्र। रत्नका मुगट, हार, वस्त्र आदि देवके रूपमें ही थे। इसलिये कहा, गुरुदेव पधारो। तो गुरुदेवने कहा, बहिन! ऐसा कुछ रखना नहीं, मैं तो यहीं हूँ। मुझे तीन बार कहा, मैं यहीं हूँ, ऐसा कुछ रखना नहीं।
मुमुक्षुः- तीन बार कहा?
समाधानः- हाँ, तीन बार कहा। गुरुदेवकी आज्ञा है तो मान लूँ। इन सभीको बहुत दुःख है। गुरुदेव उस वक्त कुछ बोले नहीं। सुन लिया। उस दिन माहोल ऐसा हो गया था कि मानों गुरुदेव है। स्वप्न तो उतना ही था। गुरुदेव देवके रूपमें पधारे।
मुमुक्षुः- वस्त्र सब देवके ही पहने थे।
समाधानः- देवके वस्त्र, देवके रूपमें ही थे।