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होती आर्य भाषा। भगवानकी भाषा, वीतरागी ध्वनि, केवलज्ञानमें विराजते भगवानकी ध्वनिमें अन्दर अनन्त रहस्य आते हैं। और भेद नहीं होकर, अमुक प्रकारकी भाषा (होती है)। भगवानकी दिव्यध्वनि अलग बात है। भगवानके उपदेशकी शैली अलग। उनकी वाणी इच्छा बिना निकले कोई अलग जातकी।
समाधानः- दर्शन, ज्ञान, चारित्र अंतरमें है, बाहर नहीं है। सम्यग्दर्शन, मात्र जीव, अजीव आदिका पाठ बोल लिया अथवा उसकी श्रद्धा की इसलिये तत्त्व दर्शन ऐसे नहीं होता। अथवा मात्र सब सीख लिया इसलिये ज्ञान हो गया ऐसा नहीं है। अथवा महाव्रत पाले इसलिये व्रत आ गये ऐसा नहीं होता। परन्तु अन्दर आत्मामें दर्शन है। आत्माका जो स्वभाव है, वह स्वभाव पहिचनाकर उसकी श्रद्धा करे तो सम्यग्दर्शन है। आत्माको पहिचाने तो सच्चा ज्ञान होता है। आत्मामें लीनता करे तो सच्चा व्रत होता है। मात्र बाहर-से नहीं होता है। बाहर-से मात्र शुभभाव होते हैं।
मुमुक्षुः- लीनता करनी कैसे? समाधानः- उसकी पद्धति तो अन्दर भेदज्ञान करे तो हो। सच्चा ज्ञान करे, उसका विचार करे, उसका वांचन करे, सच्चे देव-गुरु-शास्त्रको पहिचाने। वह कहे उस मार्ग पर चले। अन्दर उसकी लगन लगाये, उसकी महिमा लगाये, उसका विचार करे, वांचन करे, उसका अभ्यास करे आत्माका तो होता है। सच्चा स्वरूप पहिचाने तो हो।