Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-६)

२८० साधना शुरू होती है। ऐसा ही वस्तुका स्वरूप है।

जिस अपेक्षा-से वस्तु अपरिणामी है और जो परिणामी है, उसकी अपेक्षा अलग है। परन्तु द्रव्य और पर्यायका युग्म साथमें ही होता है। उसमें-से एक भी निकल नहीं सकता। दोनोंकी अपेक्षा अलग है। और साधनामें वह दोनों साथमें ही होते हैं। एक मुख्यपने होता है, एक गौणपने होता है।

मुमुक्षुः- दोनों बात उसे अपने लक्ष्यमें रखनी चाहिये?

समाधानः- एक मुख्य होती है। द्रव्यदृष्टि अनादि-से जीवने की नहीं है, इसलिये द्रव्यदृष्टि मुख्य है। तो भी पर्याय तो उसके साथ होती है। वह द्रव्य पर्याय रहित नहीं होता और पर्यायको द्रव्यका आश्रय होता है। ऐसा सम्बन्ध तो द्रव्य और पर्यायका होता है। वह उसे साथमें होता है। उसकी दृष्टि अनादि-से पर्याय पर है। दृष्टि पलटकर द्रव्य पर दृष्टि मुख्य करके उसके साथ पर्याय गौण होती है। पर्याय निकल नहीं जाती। पर्याय साथमें होती है। साधनामें दोनों साथमें होते हैं। द्रव्यदृष्टि मुख्य और साधना पर्यायमें होती है। दोनों साथमें होते हैं।

मुमुक्षुः- छठ्ठी गाथामें प्रमत्त-अप्रमत्त रहित ध्रुव ज्ञायक कहा, वह तो समझमें आता है। परन्तु दूसरे पैरेग्राफमें कहते हैं कि ज्ञेयाकार अवस्थामें जो ज्ञायकपने ज्ञात हुआ वह स्वरूप प्रकाशनकी अवस्थामें भी कर्ता-कर्मका अनन्यपना होने-से ज्ञायक ही है। तो यहाँ ध्रुव ज्ञायककी बात चलती है, फिर भी दूसरे पैरेग्राफमें अवस्थाकी बात क्यों ली? क्या अवस्था समझानी है या त्रिकाली ज्ञायक समझाना है? इसमें पहले और दूसरे पैरेग्राफका ज्ञायक एक ही है या भिन्न-भिन्न है?

समाधानः- ज्ञायक एक ही है। आचार्यदेवको ज्ञायक ही साबित करना है। ज्ञायक जो अनादि-से ज्ञायक है, वह अनादिका ज्ञायक है। विभाव अवस्थामें जो ज्ञायक है और प्रमत्त-अप्रमत्त अवस्थामें जो ज्ञायक है, वही ज्ञायक, स्वरूप प्रकाशनकी अवस्थामें वही ज्ञायक है।

आचार्यदेव कहते हैं कि अनादि-से जो विभावकी पर्याय है, उसमें अनादि-से वह ज्ञायक ही रहा है। ज्ञायकपना उसका बदला नहीं। स्वतःसिद्ध ज्ञायक है। वह ज्ञायक ही रहा है। प्रमत्त-अप्रमत्तकी जो उसकी चारित्रकी दशा है, वह चारित्रकी जो दशा है, उसमें भी वह ज्ञायक ही रहा है। चारित्रमें जो छठवें-सातवें गुणस्थानमेंं मुनि झुलते हैं, क्षणमें स्वानुभूति और क्षणमें बाहर आते हैं, ऐसी पर्यायोंकी जो साधनाकी दशा है, जो मुनिकी चारित्रकी दशा है, उसमें भी ज्ञायक तो द्रव्यरूप, द्रव्य ज्ञायकरूप ही रहा है। वह द्रव्य रहा है।

उसमें तो ज्ञायक अशुद्ध नहीं हुआ है। अनादि-से अशुद्ध नहीं हुआ है। ज्ञानकी