२९८ मैं ज्ञायक हूँ, मैं चैतन्य हूँ, ज्ञाता हूँ ऐसी भेदज्ञानकी परिणतिका अभ्यास करना। मूल वस्तु यह है। एकत्वबुद्धिको तोडना। एकत्व तोडकर स्वरूपका एकत्व करे। चैतन्यमें एकत्व, परसे विभक्त हूँ, उसका अभ्यास करना। सूक्ष्म रूपसे बहुत समझाया है, करनेका स्वयंको हो। ... आत्मा है। बाहरमें कुछ अनुपमता है ही नहीं, अनुपमस्वरूप आत्मा है। उसीमें- से प्रगट हो ऐसा है।
समाधानः- .. अनुयायी और शिष्योमें कुछ फर्क नहीं है। गुरुदेवके हर गाँवमें शिष्य हैं। यहाँ भी है, सब गुरुदेवके शिष्य ही हैं। (गुरुदेव) अलौकिक पुरुष थे, महापुरुष। गुरुदेव जैसा तो कोई है ही नहीं। गुरुदेव तो कोई अदभुत व्यक्ति इस पंचमकालमें हुए। गुरुदेवकी वाणी बहुत लोगोंने ग्रहण की है।
... तीर्थंकरदेवको जो समवसरणकी रचना होती है, भगवानकी दिव्यध्वनि छूटे, उसका अतिशय, उनकी वाणी, समवसरणमें कितने ही जीव (होते हैं), चतुर्विध संघ वाणी सुनते हैं। तीर्थंकर भगवानका अतिशय अलग ही होता है। उनके प्रताप-से अनेक मुनिवृंद होते हैं। तो भी कोई मुनि, तीर्थंकरकी तुलनामें उनके जैसा अतिशय किसीका नहीं होता। उसमें ऐसा कहे कि तीर्थंकरके बाद कौन? तीर्थंकर तीर्थंकर ही होते हैं, उनके जैसा कोई नहीं होता। तीर्थंकरके बाद किसकी स्थापना करनी, ऐसा होता ही नहीं। तीर्थंकरके बाद कोई होता ही नहीं। मुनिओंका समूह होता है, परन्तु तीर्थंकर जैसी वाणी किसीकी नहीं होती।
.. उनकी कोई स्थापना नहीं होती। उनकी ध्वनि छूटे, परन्तु तीर्थंकरका अतिशय तो तीर्थंकरको ही होता है। उनके बाद कौन? ऐसी कोई स्थापना नहीं होती कि तीर्थंकरके बाद किसको स्थापना। मुनि आदि होते हैं, उनकी स्थापना नहीं होती। क्योंकि तीर्थंकर जैसा कोई होता ही नहीं।
मुमुक्षुः- गणधर तो होते हैं न।
समाधानः- तीर्थंकर जैसा कोई होता ही नहीं। वह सब तो छद्मस्थ होते हैं। तीर्थंकर जैसा कोई होता ही नहीं। उनके बाद कौन? ऐसा कुछ होता ही नहीं। वह तो जिन्होंने वाणी ग्रहण की, तो ऐसे ही मार्ग चलता है। वाणी ग्रहण की और आत्माकी साधना करनेवाले बहुत जीव होते हैं। आत्माकी साधना करे उसीमें मार्ग चलता है। ऐसे साधक जीव बहुत होते हैं।
मुमुक्षुः- सिद्ध होकर उनके जैसा बन सकते हैं, परन्तु बाहर अतिशयमें कोई समानता नहीं होती।
समाधानः- अतिशयमें समान हो ही नहीं सकता। उनके बाद उनके जैसा कोई होता ही नहीं। साधना करनेवाले बहुत मिलेंगे, परन्तु उनके जैसा कोई नहीं मिलता।