३०० संयोग हो तो वह लाल दिखता है। परन्तु वह लाल बाहर-से नहीं आया है, परन्तु स्फटिक स्वयं परिणमित हुआ है।
वैसे जीव स्वयं परिणमता है। कुछ नहीं है अर्थात मात्र भ्रान्ति ही है और अज्ञान है, वह अपेक्षा-से बराबर है। परन्तु दूसरी अपेक्षा-से देखे तो उसे अनादि कालसे वेदन होता है, रागका, दुःखका वेदन किसको होता है? मुझे दुःख-से छूटना है, यह मुझे दुःख होता है, मुझे आकुलता होती है। वह वेदन अन्दरमें होता है। तो वह वेदन एक पर्यायमें है, मूल वस्तुमें नहीं है। वेदन पर्यायमें है, वस्तुमें तो नहीं है। परन्तु वस्तुमें नहीं है, ऐसा नक्की किया। फिर भी बाहर उसके वेदनमें अमुक खडा रहता है। इसलिये वह श्रद्धा बराबर करके, भेदज्ञानकी धारा ऐसी ही रहनी चाहिये कि क्षण- क्षणमें, क्षण-क्षणमें जैसे विकल्पकी धारा चलती है, उतनी ही उसके सामने धारा चलनी चाहिये। ... अन्दरसे चलनी चाहिये।
ज्ञायकधारा ऐसी चले तो उसमें-से स्वानुभूति हो। तो उसकी दशा चालू हो। स्वानुभूति नहीं हो तो उसकी दशा चालू नहीं होती। उसकी धारा चलनी चाहिये। अन्दर-से ऐसी भावना करे कि मैं भिन्न, मेरेमें कुछ नहीं है, मैं तो भगवान जैसा हूँ। अन्दर ऐसी भावना, वैराग्य हो जाय। परन्तु उस जातका वेदन होकर उसे स्वानुभूति होनी चाहिये। और उसकी धारा अन्दरमें (चलनी चाहिये)। बाहरमें कुछ भी काम करे तो क्षण- क्षणमें (चलनी चाहिये)। फिर भूल जाय और याद करे, भूल जाय और याद करे ऐसे नहीं, परन्तु उसे अन्दर धारा ही चलनी चाहिये। धारा चले और स्वानुभूति बार-बार हो तो उसे विकल्प छूटकर आनन्द आये। विकल्प छूटे बिना आनन्द नहीं होता।
मुमुक्षुः- विकल्प छूटे नहीं तो ऐसा अपूर्व आनन्द प्रगट ही नहीं होता।
समाधानः- हाँ, तो अपूर्व आनन्द प्रगट ही नहीं हो।
मुमुक्षुः- मुझे तो ध्रुव जैसा निश्चय है। बस, ..
समाधानः- ध्रुव, अचल... ध्रुव भी सिर्फ ध्रुव नहीं है, परन्तु ज्ञायक ध्रुव है। ज्ञायकतासे भरा हुआ ध्रुव है। ऐसा ध्रुवका निश्चय बराबर, फिर पर्यायमें क्या है? वह स्वयं नक्की करना चाहिये।
मुमुक्षुः- मैं कहती हूँ, ऐसा ही निश्चय है कि आत्मा प्राप्त करके रहूँगी। पूर्ण वीतराग होना, उस प्रकारका .. कभी छूटे नहीं ऐसा।
समाधानः- वह तो अच्छी बात है। स्वयं ज्यादा आगे बढना। ज्यादा आगे बढना बाकी रहता है।
मुमुक्षुः- आगे जाना है, इसीलिये किस प्रकार... मुमुक्षुः- वह कहती है, पूर्णपने प्रगट हो..