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मुमुक्षुः- ... मेरा जीवन था, ऐसा उसे भासित होता था, उसके बदले अब मेरा जीवन मेरे आधार-से ही है।
समाधानः- मेरी ही आधार-से है, किसीके आधार-से नहीं है। पर-से मैं टिकता हूँ और पर-से मेरा जीवन है, उसके बदले स्वयं मेरा अस्तित्व है, मैं स्वयं ज्ञायक हूँ। मैं स्वयं एक पदार्थ हूँ। कोई पदार्थसे मैं टिकू या कोई बाहरके साधनों-से, या शरीरादि पदार्थसे टिकू ऐसा तत्त्व नहीं है। तत्त्व स्वयं स्वतःसिद्ध है। तत्त्व स्वयं अपने- से टिक रहा है। उसे कोई पदार्थके आश्रयकी आवश्यकता नहीं है। स्वयं स्वतःसिद्ध है। परन्तु वह एकत्वबुद्धि करके अटक रहा है।
आता है न? स्वतःसिद्ध तत्त्व, तत्त्व उसे कहे कि जिसे परके आश्रयकी जरूरत न हो। उसका नाम तत्त्व, उसका नाम स्वभाव कहनेमें आता है। जिस स्वभावको परके आश्रयसे वह स्वभाव परिणमे अथवा परके आश्रयके जरूरत पडे, उसे स्वभाव नहीं कहते। जो स्वतःसिद्ध स्वभाव हो, वह स्वयं परिणमता है। और उस स्वभावमें मर्यादा भी नहीं होती कि ये स्वभाव इतना ही हो या इतना ही जाने। ऐसा नहीं होता। वह स्वभाव अमर्यादित होता है।
वैसे ज्ञान, वैसे आनन्द, वैसे अनन्त गुण (हैं)। जो स्वभाव हो उस स्वभावको मर्याेदा नहीं होती। जो स्वतःसिद्ध स्वभाव है, वह अनन्त ही होता है। उसे मर्यादा नहीं होती या उसे इतना ही हो, या उतना ही हो, ऐसा नहीं होता। वह किसीके आश्रय-से परिणमे या कोई आश्रय न हो तो उसकी परिणति कम हो जाय, ऐसा नहीं है।
जो स्वतः परिणामी है, स्वयं ही स्वतःसिद्ध परिणामी है। स्वभावको कोई मर्याेदा नहीं होती। परन्तु उसने सब मान लिया है अज्ञानता-से। उसका नाम३ स्वभाव, उसका नाम तत्त्व कहे कि जो स्वतःसिद्ध हो और जो अनन्त हो। ऐसे अपने स्वतःसिद्ध स्वभावकी उसे महिमा आये तो वह अपनी ओर जाता है।
बाहर-से उसे थकान लगे, विभाव परिणति-से उसे थकान लगे, उसे विकल्पकी जाल-से थकान लगे तो वह अपना चैतन्यका आश्रय ग्रहण करता है। वह थकता नहीं है तो उसे अपना आश्रय लेना कठिन लगता है। उसे थकान लगे कि ये परिणति तो कृत्रिम है, सहज नहीं है। जो-जो कष्टरूप है, दुःखरूप है। तो अपना जो स्वभाव है, उसका आश्रय ग्रहण करनेकी उसे अन्दर-से जिज्ञासा, भावना हुए बिना नहीं रहती।