Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-२)

१९८ एक आत्मा ही कराना है। और स्वानुभूतिका मार्ग बताना है, वस्तुका स्वरूप बताना है।

इसलिये निश्चय दृष्टिमें मुख्य होता है। लेकिन द्रव्य और पर्याय दोनोंका ज्ञान करानको और समझानेके लिये वस्तु स्वरूप और आत्माको ग्रहण करानेके लिये व्यवहारको भी आचार्य बीचमें कहते हैं, समझानेके लिये कहनेमें आता है। वस्तु स्वरूप तो आत्माको ग्रहण करानेका ही होता है। निश्चय सदा मुख्य ही होता है।

अभेद आत्माको ग्रहण करना, उसमें गुणभेद हो, पर्यायभेद हो, उसका ज्ञान करना होता है। वह समझे उसमें व्यवहार बीचमें आये बिना नहीं रहता। लक्षणभेद, ज्ञानका लक्षण, लक्षणसे आत्माको ग्रहण करना, ज्ञानस्वभाव आत्मा, इसप्रकार गुण द्वारा गुणीको ग्रहण करानेमें आता है। ऐसा व्यवहार भी बीचमें आता है। वह स्वयं आगे बढेे उसमें भी गुणभेद, पर्यायभेद बीचमें आते हैं। इसलिये कथनमें भी आचार्यदेव उसे समझानेके लिये, आत्माको ग्रहण करानेके लिये बीचमें आये बिना नहीं रहता। इसलिये कभी व्यवहारकी बात करते हैं, कभी निश्चयकी बात करते हैं। आगममें आता है। लेकिन दृष्टि तो उसे सदाके लिये मुख्य रहती है। और ज्ञानमें द्रव्य किसे कहते हैं, पर्याय किसे कहते हैं, साधकदशा किसे कहते हैं, साध्य क्या है, ग्रहण क्या करना है और बीचमें साधकदशा कैसी होती है, यह सब बीचमें आता है। इसलिये आचार्यदेव सब बातका उसे ज्ञान कराते हैं। ग्रहण एक आत्माको करना है। वस्तुका स्वरूप ऐसा ही है।

मुमुक्षुः- दृष्टिमें आत्मा ही रहता है अर्थात क्या? पूरा दिन वहीं उपयोग रहता है?

समाधानः- उपयोग वहाँ नहीं रहता। लेकिन उसकी दृष्टि वहाँ रहती है। उपयोगमें ज्ञानमें उसे सब जाननेके विचार आये। गुणभेद, पर्यायभेद आदि सब जाननेके लिये आता है। उपयोग वहाँ नहीं रहता, लेकिन उस पर दृष्टि, परिणति उस प्रकारकी होती है। द्रव्य पर दृष्टि सदाके लिये होती है। मैं ज्ञायक हूँ, मैं आत्मा हूँ। अपना अस्तित्व- जो चैतन्यका अस्तित्व है उस उसकी दृष्टि सदाके लिये होती है। मैं ज्ञायक, ऐसी ज्ञायककी परिणति (निरंतर रहती है)। यह विभाव मेरा स्वभाव नहीं है, गुणभेद, पर्यायभेद वास्तविकरूपसे मेरेमें नहीं है। उसका स्वरूप है, उसके गुण अनन्त है, लेकिन उसके भेद पर उसकी दृष्टि नहीं है। दृष्टि एक आत्मा पर है। उपयोग नहीं, लेकिन दृष्टि ही उस पर थँभ गई है।

श्रद्धा और ज्ञान, दोनों गुण भिन्न हैैं। दृष्टि उस पर थँभ गई है। उपयोगमें सब आता है। जाननेमें सब आता है। लेकिन दृष्टि एक ज्ञायक पर होती है। उस पर दृष्टि ऐसी स्थिर हो रहती है कि कहीं भी उपयोग जाये तो भी भेदज्ञानकी धारा तो छूटती