२० चले तो भेदज्ञानकी धारा प्रगट हो, स्वानुभूति प्रगट हो, ज्ञाताधारा प्रगट हो तो भी उसे अल्प अस्थिरता बाकी रहती है। वह पुरुषार्थकी मन्दतासे (रहती है)।
द्रव्यदृष्टिकी अपेक्षासे, जो समयसारमें आता है कि (राग) आत्माका नहीं है, वह द्रव्यदृष्टिके जोरसे (कहा है)। लेकिन अमृतचंद्राचार्य कहते हैं न कि मैं इस समयसारकी टीका रचता हूँ। मैं द्रव्यदृष्टिसे तो शुद्ध चैतन्यमात्र मूर्ति हूँ, लेकिन अनादिसे मेरी परिणति कल्माषित मैली हो रही है, उसकी शुद्धि होओ, ऐसा कहते हैं। वह परिणति स्वयंकी है और स्वयं पुरुषार्थ द्वारा सिद्धि हो, ऐसी भावना भाते हैं। मैं तो द्रव्यदृष्टिसे शुद्ध चैतन्यमात्र मूर्ति हूँ, परन्तु पुरुषार्थ द्वारा मेरी शुद्धि प्राप्त होओ, आचार्यदेव ऐसी भावना भाते हैं।
अल्प अस्थिरता है, मुनिकी दशा है तो भी ऐसा कहते हैं कि अभी भी अल्प अस्थिरता है। संज्वलनका इतना कषाय है वह भी पुसाता नहीं। उससे छूटकर केवल वीतरागदशा कैसा प्राप्त हो, उसकी भावना भाते हैं। पुनः द्रव्यदृष्टिकी बात आये और आचार्यदेवको इतनी अल्प अस्थिरता है उसे भी तोडनेकी बात प्रारंभमें करते हैं। दोनों बात समझमें आये द्रव्यदृष्टिकी मुख्यतापूर्वक, कहाँ अशुद्धता रहती है, उन दोनोंकी संधि समझकर आगे बढे तो उसकी साधकदशा यथार्थ प्रगट होती है।
मुमुक्षुः- साधनसंपन्न और सानुकूलतावाले लोग धर्म कर सके और प्राप्त कर सके, परन्तु गरीब हो, दलित हो, जिसे खाने-पीनेका ठिकाना नहीं है, वह इस धर्ममें कैसे शुरूआत कर सके?
समाधानः- सब कर सकते हैं। यहाँ पैसेवाले हो या सानुकूलतावाले हो वही कर सके ऐसा कुछ नहीं है। गरीब भी कर सकते हैं। धर्म तो अंतरमें है। उसे बाह्य सामग्रीके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। अंतरमें चैतन्यको पहचाने, मेरा चैतन्यद्रव्य कैसा अद्भुत है, उसे पहचानकर अन्दरसे भेदज्ञान करे कि यह शरीर मैं नहीं हूँ, बाह्य धन तो कहाँ अपना है, उस धनके साथ कहाँ सम्बन्ध है, बाह्य सुख-संपत्तिके साथ उसे कोई सम्बन्ध नहीं है। उससे आत्माका निभाव नहीं होता। आत्मा स्वयं अपनेसे, स्वयंका अस्तित्व अनादिसे रक्षित ही है, वह बाहरसे रक्षित हो ऐसा नहीं है।
आत्मा अनादि-अनन्त है। (आत्महित) तो गरीब भी कर सकता है। प्रत्येकका आत्मा एकसमान है। गरीब भी, यह शरीर मैं नहीं हूँ, यह विभाव मैं नहीं हूँ, ऐसी एकत्वबुद्धि तोडकर चैतन्यदेव-ज्ञायकदेवकी महिमा लाकर उसकी प्रतीति लाये, स्वानुभूति करे तो गरीब भी कर सकता है। पैसेवाले भी कर सकते हैं, सब कर सकते हैं।
शास्त्र जो कहते हैं, उन्होंने जो मार्ग दर्शाया उसे स्वयं अन्दर ग्रहण करे। शुद्धात्मा भिन्न है, लेकिन उसका मार्ग दर्शानेवाले जिनेन्द्रदेव, गुरु साक्षात चैतन्यमूर्ति दर्शाते हैं,