०४०
है। ... लेकिन उसे सहज है, हठपूर्वक नहीं है। शुरूआत होनेमें फर्क होता है।
मुमुक्षुः- किसीकी शुरूआत ऐसी हो कि सम्यग्दर्शन हो और वापस..
समाधानः- पुरुषार्थ कम हो जाये, ऐसा होता है। शुरूआत करनेमें फर्क होता है।
मुमुक्षुः- धर्म सम्बन्धी शंका हो कैसे? गुरुदेव इतना ठोस बोलते हैं।
समाधानः- अन्दर स्वरूप को देखा और स्वानुभूति हुई, उसे निःशंकता क्यों नहीं आये? गुरुदेव कितने निःशंकतासे उनकी वाणीमें (कहते थे)।
मुमुक्षुः- आपने यह कहा कि स्वयंसे ही होता है। उसमें आपका बोलनेमें बहुत जोर था। उस वक्त मुझे ऐसा लगा कि वाकईमें जोर है। आपने कहा कि, कोई नहीं कर देता।
समाधानः- स्वयं ही है, कोई कर नहीं देता। देव-गुरु-शास्त्र उसमें निमित्त होते हैं, परन्तु उपादान तो स्वयंको ही करना है, तैयारी तो स्वयंको करनी पडती है। देव- गुरु-शास्त्र निमित्त होते हैं। अनादिकालसे देव और गुरु मिले तब अन्दर देशनालब्धि होती है। ऐसा सम्बन्ध है। परन्तु तैयारी तो स्वयंको करनी पडती है, पुरुषार्थ तो स्वयंको ही करना पडता है।
मुमुक्षुः- उतनी रुचि कम है?
समाधानः- उतनी रुचि, उतना प्रयत्न सबकी कमी है। कारण पूरा दे तो कार्य हुए बिना नहीं रहता। कारणमें कचास है इसलिये कार्य नहीं होता।
मुमुक्षुः- ... उस वक्त अनादिका जो अभ्यास है, उसमें जुडनेके बाद आपने जो हमें ज्ञान दिया है, आपने और गुरुदेवने, उससे ज्ञानको वापस मोडते हैं, परन्तु पहले तो जुड जाते हैं।
समाधानः- उसमें जुड जाता है। फिर उसे विचार आये कि यह मेरा स्वभाव नहीं है। परन्तु पहले जुड जाता है। एकत्वबुद्धि है, अनादिका अभ्यास है, उसमें जुड जाता है। परन्तु जिसे भेदज्ञान यथार्थ हो, वह स्वयं जुडता ही नहीं, भिन्न ही रहता है। उसकी ज्ञानकी धारा, ज्ञायककी ज्ञानधारा भिन्न ही रहती है और यह एकत्वबुद्धिके कारण पहले जुड जाता है और बादमें उसे भावना, जिज्ञासा है इसलिये विचार आता है।
विचार और भावना करते-करते, स्वयं प्रयत्न करते-करते भिन्न पडे। प्रयत्न करते- करते (भिन्नता करे)। पहले तो अनादिकी एकत्वबुद्धि है इसलिये जुड जाता है। परन्तु उसकी भावना, जिज्ञासा, पुरुषार्थ बारंबार भिन्न पडनेका, बारंबार-बारंबार प्रयत्न करे, उससे थके नहीं। उसे रुखा नहीं लगे, उसे ज्ञायककी महिमा लगे। उसे रुखा नहीं लगे