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मुमुक्षुः- जब ऐसी अनुभूति हुई तब मैंने लिखा कि, नौ तत्त्वसे रहित मुझे नहीं हुआ है। मैं तो नौ तत्त्वसे रहित हूँ।
समाधानः- वह तो द्रव्य। पर्यायमें तो है। द्रव्य शुद्ध है, उसकी पर्यायमें अशुद्धता है। पर्याय अपेक्षासे नौ तत्त्व है और द्रव्य अपेक्षासे स्वयं अभेद है। पर्यायमें, उसकी जो वर्तमान पर्याय अर्थात अवस्था होती है, उसमें उसे पुण्य-पापके परिणाम होते हैं। फिर आगे गया इसलिये संवरकी पर्याय होती है। निर्जराकी पर्याय होती है। वह सब पर्याय, जब तक साधना करता है, पूर्ण नहीं हुआ है, साधना करता है, वहाँ संवर होता है, निर्जरा होती है, मोक्षकी पर्याय होती है। लेकिन मात्र उस पर्याय जितना द्रव्य नहीं है। द्रव्य अनादिअनन्त शाश्वत है, द्रव्य अनादिअनन्त है। और पर्याय है, पर्याय बिलकूल है ही नहीं, ऐसा नहीं है। उसे भूतार्थ दृष्टिसे देखो तो अबद्धस्पृष्ट आत्मामें नहीं है। न ही बँधा है, न ही स्पर्शित है। सामान्य (है), विशेषरूप नहीं है।
जिसने उस दृष्टिसे देखा कि, कमलिनीका पत्र निर्लेप है। कमल पानीसे निर्लेप रहता है। लेकिन पानीकी ओरसे देखा तो वह पानीसे लिप्त है। और कमलकी ओरसे देखो तो वह लिप्त नहीं हुआ है। और द्रव्यकी ओर देखे तो वह लिप्त नहीं हुआ है। लेकिन उसकी पर्यायकी ओर देखो तो वह लिप्त है। यदि लिप्त नहीं हो तो यह सुख-दुःखका वेदन किसे होता है? सह सब पुरुषार्थ क्यों करना? बंध-मोक्ष क्यों करना? इसलिये वह दोनों दृष्टि ज्ञानमें रखनी। और एक द्रव्यकी ओर देखे तो स्वयं लिप्त नहीं हुआ है। और पर्यायकी ओर देखो तो वह लिप्त है। लेकिन उसे भिन्न करके, अनादिसे भिन्न नहीं करता। मैं लिप्त हूँ, लिप्त हूँ, ऐसा करता रहता है। लेकिन उसे भिन्न करके, मैं भिन्न ही हूँ, यह मेरेमें नहीं है। नहीं है, ऐसा करता है तो भी खडा रहता है। भेदज्ञानमें प्रतीत की तो भी खडा रहता है, इसलिये स्वरूपमें स्थिर हो जाय, स्थिर हो जाय, अधिक स्थिर होता जाय तो उसका नाश हो। स्थिर होता जाय। गृहस्थाश्रममें अमुक प्रकारसे स्थिर हुआ है। फिर जब मुनि हो जाय, बाहरका सब छूट जाय, जंगलमें चला जाय, आत्माका ध्यान करे, अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें आत्मामें झुलता हो, तब उसे छूटे। फिर भी थोडा रहता है। लेकिन फिर एकदम स्वानुभूतिमेंसे बाहर ही नहीं आये