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ऐसी दशा होती है, तब पूर्ण होता है। तब वह वीतराग होता है। तब तक वह रहता है। तब तक पहले उसकी साधकदशा, सम्यग्दर्शनकी दशा होती है। पूर्णताके लक्ष्यसे शुरूआत (होती है)। पूर्ण द्रव्य, द्रव्यको ग्रहण कर लिया। लेकिन अभी उसकी दशा वेदनमें आनन्दकी दशा पूर्ण हो, वह बादमें होती है। स्वानुभूति होती है उस वक्त अकेला आनन्द (होता है)। बाहर आये तो अमुक प्रकारसे शांति रहती है। बाकी स्वानुभूतिका आनन्द वह बाहर होता है, तब नहीं आता है। स्वानुभूतिका आनन्द तो कोई अलग ही होता है। उसका किसीके साथ मेल नहीं है।
मुमुक्षुः- ऐसा ही उस वक्त लगा था। जगतकी कोई वस्तु प्राप्त करे और आनन्द नहीं हो, वैसा अपूर्व आनन्द, एकदम भिन्न प्रकारका आनन्द।
समाधानः- (द्रव्य स्वभाव) तो शाश्वत है। यह सब तो अशुद्ध है।
मुमुक्षुः- वह अपनी निज शक्ति है। इसलिये निज स्वरूप शक्ति है और शक्तिका वही स्वरूप है।
मुमुक्षुः- बहिनश्रीके वचनामृत पुस्तक.. मुमुक्षुः- मैंने सब पढा है। फिर मालूम हुआ कि द्रव्यको भिन्न करके देख। वह तो कोई अलौकिक बात है। स्वंयका स्वयं ही जान सके, तब इतना बोले न। मुझे ऐसा लगता है कि गुरुदेव जैसी विरल शक्ति हमारेमें भी प्रगट हो। ... योग्य होनेके लिये पर्याय भी स्वतंत्र है, द्रव्य भी स्वतंत्र है। दोनों वस्तुएँ निरपेक्ष हैं। मानो अभी .. धारण कर ले, इतना लगता है कि चारित्र क्यों प्रगट नहीं हो? .. देखते ही नहीं। अभी चारित्र ग्रहण क्यों न करें? इसीलिये तो पहला प्रश्न वह पूछा। दूसरा कुछ नहीं। दिगम्बर निर्ग्रंथ मुनि बनकर और चारित्र ग्रहण करके... फिर सोगानीजीका पढा, इतना अच्छा लगा कि मानो उनकी दशा और मेरी दशा, जैसे अपने ही भाव क्यों न हो।
समाधानः- ... शुभभाव हैं। ... वह भी राग है। राग है लेकिन स्वयं अन्दर भेदज्ञान करे। पहले भिन्न हो जाय। श्रद्धा करे कि मैं ज्ञायक हूँ। उसे मुख्य रखे परन्तु दूसरा गौणमें तो रहता है। क्योंकि जब तक पूर्ण चारित्र न हो, तब तक बीचमें आये बिना रहता नहीं। चौथे कालमें गृहस्थाश्रममें श्रावक रहते थे। चक्रवर्ती, भरत चक्रवर्ती आदि सब चक्रवर्ती रहते थे। लेकिन वे आत्माको भिन्न जानते थे। क्षण-क्षण भिन्न जानते थे। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा आये तो भगवानके दर्शन करने जाते, उनकी पूजा करते, स्वाध्याय करते, सब करते थे। लेकिन उन्हें अन्दर भेदज्ञान चालू रहता था। समझे, अंतरमें वेदन ऐसा होता है कि यह मैं भिन्न हूँ। उसे जाने कि मैं इससे भिन्न हूँ। निरंतर, ऐसे सिर्फ बोलनेमात्र नहीं, विकल्पमात्र नहीं, लेकिन अन्दरसे रहा करे किैमैं