२५० भिन्न ही हूँ, भिन्न ही हूँ, ऐसा उसे रहता है। लेकिन उसे सहजरूपसे जब तक चारित्र नहीं आता है, तब तक रहता है। चारित्र उसे सहज आता है। यदि उसे हठ करके ले तो मुश्किल हो जाता है। इसलिये सहज आता है। सहज आता है।
मुमुक्षुः- स्वरूप सहज है इसलिये..
समाधानः- इसलिये सहज आना चाहिये। क्योंकि स्वयंको विकल्प नहीं दिखता कि ज्ञायकको मुख्य करुँ, परन्तु अन्दर विकल्प पडे हैं। होते हैं सूक्ष्म-सूक्ष्म। अन्दर जो राग पडा है, वह उसे खडा होता है। इसलिये उसे सहज आना चाहिये। बाकी तो भरत चक्रवर्ती तो अरीसा भूवनमें क्षण भर खडे थे, और सफेद बाल देखा तो वैराग्य हो गया। एकदम अंतरमें ऊतर गये और केवलज्ञान हो गया। लेकिन उतनी दशा अन्दर सहज आनी चाहिये। चारित्र लें, ऐसी भावना आये लेकिन अंतर सहज आना चाहिये।
मुमुक्षुः- उतना बल उछलना चाहिये। उत्तरः- भावना भले उग्र हो जाय कि चारित्र ले लूँ, लेकिन अन्दर उतना सहज आना चाहिये। स्वयं सहज टिक सके उतना नहीं आये तो पहले उसे एकदम भाव आ जाये, सब छूट भी जाये, लिकन अंतरमेंसे आना चाहिये, अंतरमेंसे सहज आना चाहिये।
मुमुक्षुः- ज्ञायक ही ज्ञेय है, ज्ञायक ही ज्ञेय है। बाहर तेरा ज्ञेय ही नहीं है, पर ज्ञात ही नहीं होता।
समाधानः- ज्ञायक भले ज्ञात होता हो, ज्ञायक ही ज्ञात होता है, पर ज्ञात नहीं होता, लेकिन ज्ञायकका स्वभाव जाननेका है। उसक उपयोग रखकर नहीं जानता, भले वह रागसे नहीं जाने, रागसे जुदा हो, लेकिन वह ज्ञायक है। ज्ञायक है, अंतरमें यदि वीतरागदशा हो तो बिना इच्छा सहजरूपसे लोकालोकको जाने ऐसा ही उसका स्वभाव है। जाननेका स्वभाव है। ज्ञायक-जाननेवाला किसे कहते हैं? उसमें इतना जाने और नहीं जाने ऐसा नहीं होता, वह सब जानता है। ऐसा उसका जाननेका स्वभाव है। अनन्त-अनन्त जाननेका स्वभाव है। इस लोकके अनन्त द्रव्य, अनन्त क्षेत्र, अनन्त काल, अनन्त भाव, जितने अनन्त जीव हैं, उन सबका जाने ऐसा उसका स्वभाव है। लेकिन वह उसे राग रखकर जानता है वह उसकी भूल है। इसलिये भले उसे अकेला ज्ञायक ज्ञात होता हो, लेकिन ज्ञायकका जाननेका स्वभाव है। वह जब पूरा होता है तब वह सब जाने, ऐसा उसका ज्ञायक स्वभाव है। भूत कालमें क्या था, वर्तमानमें क्या है, भविष्यमें क्या होगा, सब जाने ऐसा ज्ञायकका स्वभाव है। ऐसा ज्ञायक है, महिमावंत ज्ञायक है। अकेला ज्ञायक ज्ञात हो, श्रद्धामें ज्ञात हुआ कि मैं ज्ञायक। लेकिन ज्ञायक