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ज्ञानमें हो, दोनों साथमें हो तो वेग मिलता है।
मुमुक्षुः- जितनी ज्ञानमें कचास ख्यालमें आये तो कोई बात नहीं, दृष्टिसे वह सब निकल जायेगा। ज्ञानमें कुछ कचास ख्यालमें आये तो ही दृष्टिमें वेग मिले न कि अभी इतना बाकी है।
समाधानः- तो दृष्टिको वेग मिले। दोनों परस्पर हैं। दृष्टिको वेग मिलता है ज्ञानसे और दृष्टिसे ज्ञानको वेग मिलता है। लीनता आदि सब परस्पर एकसाथ रहे हैं। विरूद्ध कार्य नहीं करते।
मुमुक्षुः- सर्व पदार्थ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक हैं। उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्क होनसे स्वयं ही टिकता है और स्वयं ही परिणमता है। दोनों वस्तुके अपने स्वभाव हैं। तो फिर जो ऐसा कहनेमें आता है कि पर्याय द्रव्यमेंसे आती है। गुण तो एकरूप रहते हैं, फिर पर्याय द्रव्यमेंसे आती है और दूसरे समय द्रव्यमें विलीन होकर द्रव्यमें चली जाती है, उसका आशय क्या है?
समाधानः- द्रव्य स्वयं परिणमता है। उसके गुण जो स्वभाव है, वह गुण कार्य करते हैं। ज्ञान ज्ञानरूप, दर्शन दर्शनरूप। जो अनन्त गुण हैं, सर्व अपने-अपने कार्य करते हैं। और कार्य विलीन होता है। पर्यायका स्वभाव ही ऐसा है कि वह कार्य करे और दूसरे क्षण व्यय होता है। एक समयमें उत्पाद-व्यय-ध्रुव एकसाथ रहते हैं, और दूसरे समय (भी वैसा ही रहता है)। उत्पाद-व्यय और ध्रुव सब साथमें ही रहते हैं। दूसरा-दूसरा उत्पाद होता जाता है, पहलेका व्यय होता जाता है। व्यय होता जाता है। द्रव्यमें उसकी योग्यता होती है।
मुमुक्षुः- समय-समयमें गुण परिणमते रहते हैं। गुण तो नित्य रहते हैं। तो सामान्यमेंसे विशेष आता है, ऐसा जो कहनेमें आता है, उसके पीछे क्या रहस्य है?
समाधानः- सामान्यमेंसे विशेष। सामान्यका ऐसा स्वभाव ही है। सामान्य उसे कहते हैं कि कोई कार्य करे। ज्ञानगुण-जानना स्वभाव है, आत्माका ज्ञायक स्वभाव है। ज्ञायक है, वह ज्ञायक जाननेरूप कार्य करता हो तो ही वह जानना कहें कैसे? उसका कुछ जाननेका कार्य ही न हो तो जानना कैसे कहा जाय? आनन्द आनन्दका कार्य न करे तो आनन्द कहा जाय? सामान्यका अर्थ ही ऐसा है कि सामान्य हो वहाँ विशेष होता ही है। विशेष बिनाका सामान्य होता ही नहीं। विशेष बिनाका सामान्य नहीं होता और जो सामान्य है उसमेंसे विशेष होता ही है। विशेष सामान्यके आश्रयसे होता है। और सामान्य हो वह विशेषरूप परिणमित हुए बिना रहे ही नहीं। वह सामान्य कैसा? उसका कार्य न करे (तो) ज्ञान कैसे कहा जाय? ज्ञान ज्ञानरूप परिणमे नहीं तो ज्ञान कैसा? आनन्द आनन्दरूप परिणमित न हो तो आनन्द कैसे कहा जाय? आनन्दका