२५८ वेदन न आये तो आनन्द कैसे कहा जाय? ऐसे अनन्त गुण यदि स्वयं अपने रूप यदि कार्य न करे तो वह गुण कैसे कहा जाय? सामान्य है वह अनादिअनन्त एकरूप रहता है और उसके सब कार्य बदलते जाते हैं। सामान्य हो वहाँ विशेष होता ही है। उत्पाद-व्यय और ध्रुव रूप ही द्रव्य हो तो ही वह द्रव्य कहा जाय।
मुमुक्षुः- यदि गुणमेंसे कार्य आता हो तो विकारी कार्य, जो विकारी विभाव उत्पन्न होते हैं वह भी गुणमेंसे आता है?
समाधानः- आत्मामें ऐसी विभाविक शक्ति है। विभाविक शक्ति है इसलिये विभावपर्याय होती है। उसका वह निमित्त है। उसकी वैसी कोई योग्यता ही नहीं है, ऐसा नहीं है। आत्मामें एक ऐसी विभाविक शक्ति है। ऐसी योग्यता है कि जो विभावरूप परिणमती है। निमित्त कुछ करवाता नहीं, निमित्त है, लेकिन ऐसी उसकी योग्यता है कि उस रूप परिणमता है। स्फटिक निर्मलरूप उसका स्वभाव है। लेकिन निमित्त आये तो लालरूप परिणमित हो तो निमित्त लाल नहीं करता। लेकिन स्फटिककी योग्यता है कि उस रूप परिणमित हो।
उसी प्रकार आत्मामें एक विभाविक शक्ति है कि जो विभावरूप परिणमती है। लेकिन जब वह स्वभावरूप परिणमित होता है तो विभाविक योग्यता वैसे रह जाती है, बस। लेकिन वह गुण ऐसा नहीं है कि गुण पलटकर... ये गुण तो ऐसे हैं, ज्ञायक- ज्ञान, आनन्द आदि गुण तो ऐसे हैं कि आत्माके साथ ऐसे जुडे हैं कि उसका कार्य आये। उसीका नाम गुण कहलाता है। कार्य न आये तो गुण ही नहीं कहा जाता। ऐसे वह विशेष गुण हैं आत्मामें। ज्ञान, आनन्द और दूसरी सब शक्तियाँ हैं, धर्म हैं। वह कार्य करता है। उसमें भले कमी-बेसी नहीं होती। ज्ञान ज्ञानरूप जाननेका कार्य करता ही रहता है। कमी-बैसे वस्तु स्वरूपसे नहीं होती। मूलमें कमी-पेसी नहीं होती। पर्यायमें कमी-बेसी दिखती है। मूल वस्तुमें कमी-बसी होती नहीं।
वह तो कोई आत्माका अचिंत्य स्वभाव है, गुणोंका अचिंत्य, पर्यायका अचिंत्य वह सब स्वभाव युक्तिसे अमुक प्रकारसे उसका सिद्धांत स्वयं बिठा सकता है। बाकी आनन्द गुण अनन्त काल सिद्ध भगवानमें परिणमता रहता है तो आनन्द खत्म ही नहीं होता। चाहे जितना परिणमे तो भी खत्म ही नहीं होता। उसमें कोई कमी नहीं हो जाती। वह बढकर बाहर नहीं चला जाता। अपनी मर्यादा नहीं छोडता है। आत्मामें ऐसी कोई अदभूत शक्ति है। उसे अगुरुलघु कहते हैं। बढे और कम हो, हानि-वृद्धि। हानि-वृद्धि वास्तवरूपसे अन्दर कुछ होती ही नहीं। षटगुणहानिवृद्धि तारतम्यता होती है। वस्तु स्वरूपमें कुछ होता नहीं। फिर भी कमी-बेसी होती है। पर्यायमें अलग, गुणमें अलग ऐसा कोई आत्माका अचिंत्य स्वभाव है। उसकी अपेक्षासे समझना चाहिये।