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द्रव्य अनादिअनन्त, उसके गुण अनादिअनन्त, पर्यायमें फेरफार हो। विभाविक शक्तिके कारण विभाव होता है, वह तो वेदनमें आता है, फिर भी शुद्धात्मा द्रव्य वैसा का वैसा रहता है। वह सब उसके स्वभावको मिलान करके समझना चाहिये। शास्त्रमें आता है, उसके अनुसार बराबर मेल करके समझना पडे। जो नित्य है, गुणोंमें कोई फेरफार (होता नहीं), अनादिअनन्त नित्य है, तो फिर उसमें पर्यायकी अनित्यता कहाँ-से आयी? उसका स्वभाव है, वह पर्यायमें परिणमता रहे। ज्ञान ज्ञानका कार्य करता रहता है।
अनादि अनन्त पारिणामिकभावस्वरूप द्रव्य है। उसमें प्रगटमें विभाव पर्याय होती है और जब सम्यग्दर्शन होता है, तब भेदज्ञान होता है। वहाँ अमुक अंशमें साधक दशा होती है, तो थोडी निर्मल पर्याय और थोडी विभाव परिणति रहती है। जितने अंशमें, बाकी विभाव खडा रहता है। द्रव्यदृष्टिसे पूर्ण द्रव्य लक्ष्यमें आया इसलिये उसी वक्त पूर्ण नहीं हो जाता। द्रव्य अनादिअनन्त पूर्ण है ऐसी दृष्टि हुयी, तो भी पर्यायमें अभी विभाव आदि है। सम्यग्दर्शनकी दशा होती है, लेकिन अभी चारित्रमें बाकी रह जाता है। स्वभावसे पूर्ण लेकिन पर्यायमें अधूरा। लेकिन वह पर्याय किसकी? पर्यायमें अधूरा है वह द्रव्यकी ही पर्याय है। पर्याय निराधार लटकती नहीं है। पर्यायका वेदन कोई दूसरेको नहीं होता, स्वयंको ही होता है। उसका मेल करके समझना चाहिये। अंतरमें अंतःतत्त्व एकमेक रूपसे गुण और द्रव्य है, परंतु पर्यायमें फेरफार है। इन सबका मेल करके समझना चाहिये। दृष्टि एक सामान्यको ग्रहण करे, परन्तु फिर विशेषमें क्या है? ज्ञानमें बराबर यथार्थ जानना पडे तो उसे साधकदशा चलती है।
मुमुक्षुः- विभाव जो होता है वह विभाविक शक्तिके कारण होता है? चारित्रगुणमें जो विकार हुआ, उसका कारण विभाविक शक्ति लेनी?
समाधानः- ऐसी विभाविक शक्ति है आत्मामें और अपने पुरुषार्थकी मन्दता है और निमित्तकी ओर स्वयं जुडता है, अपने चारित्रगुणमें उतना अधूरापन है और विभाविक शक्ति है। विभाविक शक्ति करवाती नहीं, लेकिन स्वयं अपने पुरुषार्थकी मंदतासे उसमें जुडता है। कुछ विशेषगुण, कुछ सामान्यगुण, विशेषगुण आदि अनेक प्रकारके धर्म उसमें हैं।
मुमुक्षुः- विशेष आता है उसका अर्थ इतना हुआ कि गुण गुणरूप रहकर परिणमते हैं।
सामान्यः- नहीं तो विशेष आये कहाँ-से? विशेष ज्ञानका जाननेका कार्य है, वह किसीके आश्रयसे है। क्षणभर परिणमन करके बदल जाता है वह किसीके आश्रयसे है, आश्रयके बिना नहीं है। सामान्यके आश्रयसे विशेष परिणमता है।
मुमुक्षुः- अर्थात कोई पर्याय परद्रव्यमेंसे नहीं आती।