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हैं, उसे स्वयं अंतरसे ग्रहण करे। और उसे ऐसी गहरी जिज्ञासा होती है। एक आत्माका प्रयोजन होता है, दूसरा कोई प्रयोजन जिसे नहीं है। कोई बाहरका प्रयोजन अथवा बाहरमें आगे आनेका, ऐसा किसी भी प्रकारका प्रयोजन नहीं है, एक आत्माका ही प्रयोजन नहीं है। एक आत्माका ही प्रयोजन है। उसे अमुक प्रकारका विभावका रस कम (हो जाता है), अमुक प्रकारकी कषायोंकी मन्दता हो जाती है। जो अनन्तानुबंधीके कषाय हैं वह उसे मन्द हो जाते हैैं और अंतरमें एक आत्माका ही प्रयोजन होता है। "कषायकी उपशांतता मात्र मोक्ष अभिलाष'। जिसे मोक्षकी अभिलाषा है। अंतरमें आत्मार्थका एक प्रयोजन है, वह पात्रता है।
कोई भी कार्यमें मुझे आत्मा कैसे समझमें आये? उसे एक ही ध्येय होता है। भेदज्ञान कैसे हो? कैसे पुरुषार्थ करुँ? कैसे करुँ? कैसे मार्ग समझमें आये? आत्मा कौन है? उसका स्वभाव क्या है? विभाव क्या है? सब नक्की करनेके लिये, तत्त्वका निर्णय करनेके लिये विचार, वांचन आदि सब अंतरसे (होता है)। जिसे अंतरसे ऐसी जिज्ञासा हो, वह करता रहे, उसके लिये लगनी लगे। और जब तक वह नहीं हो तब तक बाहरमें देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, जिनेन्द्रदेव, गुरु, शास्त्रमें क्या आता है? गुरुदेवने क्या है? सबका वह अंतरमें विचार करे।
एक शुद्धात्मा कैसे पहचानमें आये? विभाव बिनाका, जिसमें विकल्प नहीं है, जो निर्विकल्प तत्त्व है, वह कैसे पहचानमें आये? उसका भेदज्ञान कैसे हो? वह मार्ग कैसे मिले? स्वानुभूति कैसे हो? क्या वस्तु स्वरूप है? उसका बारंबार विचार करे। बारंबार अंतरसे उसकी जिज्ञासा (करे)। दिन-रात उसका मंथन होता है, वह पात्रताका एक लक्षण है।