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समाधानः- उसे ग्यारह अंगका ज्ञान हो तो भी श्रद्धा उसकी सम्यक नहीं है। उसे स्व-परका भेदविज्ञान नहीं है, विचार करता रहे, नक्की करता रहे कि मैं भिन्न हूँ, ऐसे शास्त्रके सब पाठ पढ लिये, ग्यारह अंग पढ लिया, वह भी पढनेसे नहीं होता, भले अन्दरसे (आता है), फिर भी वह सब अंतर परिणतिपूर्वक नहीं है। इसलिये उसे श्रद्धा सच्ची नहीं है। ऐसे व्यवहार श्रद्धा कहनेमें आये। व्यवहार श्रद्धा तो ऐसी होती है कि ऊपरसे देव उतरकर डिगाये तो भी डिगे नहीं, ऐसी उसकी श्रद्धा होती है। ऐसा उसका ज्ञान होता है कि कोई डिगाये तो डिगे नहीं। ऐसे श्रद्धा-ज्ञान व्यवहारमें होते हैं। परन्तु अंतरमें शुभराग और मैं भिन्न हैं, शुभरागसे मुझे लाभ नहीं है। शुभरागकी रुचि अंतरमें रह जाती है। शुभराग विभाव है, ऐसा बोले, परंतु अंतरमें शुभरागकी रुचि रह जाती है। वह उसे छूटती नहीं। इसलिये भले ग्यारह अंग पढा, लेकिन श्रद्धा सच्ची नहीं है। श्रद्धा सच्ची नहीं है इसलिये ज्ञानको भी सम्यक नाम नहीं दिया जाता। भले द्रव्य-गुण-पर्यायकी सब बातें करता हो, तो भी।
मुमुक्षुः- ज्ञानमें भावका भासन यथार्थ..
समाधानः- अन्दर यथार्थ भासन नहीं है। जैन धर्म सच्चा, सब सच्चा ऐसा सब निर्णय करता हो, दूसरे मत सच्चे नहीं है, जैन (मत) सच्चा है, ऐसा सब उसने बुद्धिसे नक्की किया होता है। परन्तु अन्दर स्वानुभूतिका पंथ और अन्दर स्वानुभूति कैसे हो, वैसी परिणति उसे प्रगट नहीं हुयी है। अन्दर गहराईमें शुभरागकी रुचि रह जाती है। अन्दरमें शुभरागकी रुचिकी प्रवृत्ति, ऐसी प्रवृत्ति-अन्दर गहरी रुचि रह जाती है। वह रुचि उसे छूटती नहीं। अन्दरकी रुचि आत्माकी ओर हर तरहसे झुक जाय, ऐसी रुचि आत्माकी ओर गहराईसे (नहीं होती)। यह दुःखमय संसार है, यह सब ऐसा है, ऐसा सब उसे होता है। संसारमें बहुत दुःख है, ऐसा होता है। लेकिन अन्दर मेरे आत्मामें सुख है और मेरे आत्माका अस्तित्व क्या, यह अंतरमेंसे उसे रुचिपूर्वक नक्की नहीं करता।
मुमुक्षुः- ऊपर-ऊपरसे... समाधानः- ऊपर-ऊपर सब विचार आते हैं। बोलनेमें उसे सब आता है। बोले, परन्तु अन्दर मैं भिन्न, मुझे भेदज्ञान करना है, मैं इससे भिन्न हूँ, ऐसी अपनी परिणति प्रगट नहीं करता। मैंने सब छोडा है और मुझे तो कोई राग ही नहीं है, मैंने तो सब त्याग कर दिया है। आत्मा आदि सब मुझे हो गया है। ऐसा स्वयंको सर्वस्व मान लेता है।