Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-२)

२९२ रुकना वह आत्माका स्वभाव ही नहीं। पर ओर जाना, उसमें उसे सुख ही नहीं लगे। वह उसका स्वभाव ही नहीं है। जिसे यथार्थ आत्मार्थीता हो उसे बाहरमें, अंतरमें गहराईमें आत्माके अलावा कहीं सुख लगे ही नहीं, क्योंकि वह उसका स्वभाव ही नहीं। सच्चे आत्मार्थीको अन्दर सब दुःख और आकुलता ही लगती है। सच्चे आत्मार्थीको। क्योंकि वह उसका स्वभाव नहीं है, इसलिये उसे उसमें अटकना पोसाता नहीं। परन्तु जिसे गहराईमें उतना आत्माका प्रयोजन नहीं है तो वह उसमें रुक जाता है। कहीं- कहीं अटक जाता है।

उसने मोक्ष किसे मान लिया है? मैंने सब छोड दिया है। मुनिकी जो क्रियाएँ हैं, वह सब मैं पालता हूँ। छकायकी रक्षा, पंच महाव्रत पालता हूँ, बराबर शास्त्रका अभ्यास करता हूँ और बराबर जैसा है वैसा पालता हूँ। उसकी सब आवश्यक क्रियाएँ करता हूँ। मेरा मोक्ष होनेवाला ही है। मोक्ष यहीं है। मैं अंतरसे भिन्न हो जाउँ, यह सब क्रियाके विकल्पसे भिन्न हो जाऊँ, ऐसी रुचि अंतरमें होती नहीं। मोक्षके लिये ही करता है। मोक्षका स्वरूप यहीं है, ऐसा अंतरमें उसे गहराईमें यह लगना चाहिये। मैं मोक्षस्वरूप ही हूँ और विभाव परिणतिमें रुका हूँ, इसलिये बंधन है। इसलिये मुझे विभावसे छूटना है। अंतरमें उसे आना चाहिये, तो सच्चा मोक्ष हो। ... अशुभ परिणाम गौण होकर, अशुभ परिणामसे मोक्ष होगा। शुभमें अटका है।

मुमुक्षुः- अशुभसे मोक्ष होगा।

समाधानः- अशुभसे मोक्ष होगा।

मुमुक्षुः- अंतरमें भिन्न हूँ और भिन्न होना है, दोनों बात उसे...

समाधानः- अंतरमें लगना चाहिये, मैं भिन्न ही हूँ। द्रव्य मेरा भिन्न ही है, विभावमें अटका है वहाँसे छूटना है। ऐसा अंतरमें लगना चाहिये। लेकिन जो एकसे नहीं छूटा शुभसे, वह वास्तविकरूपसे अशुभसे नहीं छूटा है।

मुमुक्षुः- सब पलट जायेगा।

समाधानः- पलट जायेगा। ... (मालूम) पडे, स्वयंको मालूम पडे लेकिन उसे अन्दर खोजनेकी वृत्ति, खोजनेकी लगी हो तो (मालूम) पडे न। संतुष्ट हो गया हो तो कहाँसे पडे? संतुष्ट हो गया हो उसे कहाँसे मिले? मैंने तो सब कर लिया है, ऐसे संतोष आ गया हो तो कहाँसे ढूँढे। जिसे संतोष नहीं है, शास्त्रमें यह सब आता है कि मुनिपना पाला तो भी द्रव्यलिंगी मुनि अनन्त बार ग्रैवेयक उपजायो, तो भी मोक्ष नहीं हुआ, वह क्या होगा? इस प्रकार स्वयंको विचार करनेका, स्वयंको अपनी परिणतिको खोजनेकी पडी हो तो स्वयं ढूँढ सकता है। परन्तु स्वयंको अपनी पडी नहीं, संतोष आ गया हो तो कहाँसे ढूँढे? (संतोष) हो ही गया है।