Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 8.

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 30 of 1906

 

अमृत वाणी (भाग-२)

३०

ट्रेक-००८ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- अस्तिके अधिक विचार बारंबार करने? उत्तरः- ... नहीं हूँ, ऐसा साथमें आ जाता है। मैं कौन हूँ? मैं आत्मा ज्ञायक हूँ, चैतन्यरूप हूँ, अनंत गुणसे, अनंत महिमासे भरा मैं चैतन्य हूँ और ये जो विभावकी परिणति (है), वह मेरा स्वभाव नहीं है। पुरुषार्थकी मन्दतासे होता है, लेकिन वह मेरा स्वभाव नहीं है। मेरा स्वभाव चैतन्यमय है, मैं ज्ञायक हूँ। ज्ञायकके अस्तिके जोरमें मैं यह नहीं हूँ, ऐसा साथमें आता है। क्योंकि यह मैं नहीं हूँ, ऐसा साथमें आये, वह साथमें आये बिना नहीं रहता।

मैं कौन हूँ? ज्ञायक हूँ, इसलिये यह मैं नहीं हूँ। मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, ऐसा बारंबार आये, उसके साथ यह मैं नहीं हूँ, मैं नहीं हूँ, इसप्रकार दोनों साथमें आते हैं। यह मैं हूँ और यह मैं नही हूँ, एकसाथ आता है। "भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन'। जो सिद्ध हुए, वे भेदविज्ञानसे हुए हैं, नहीं हुए हैं वे भेदविज्ञानके अभावसे नहीं हुए हैं। भेदविज्ञानमें चैतन्यका अस्तित्व और परका नास्तित्व, दोनों साथमें आ जाते हैं।

द्रव्य पर दृष्टि करके द्रव्यदृष्टि और परसे भिन्न, दोनों साथमें ज्ञानमें आते हैं और दृष्टिमें ज्ञायक आता है। ज्ञान दोनोंका विवेक करता है कि द्रव्यदृष्टिसे मैं यह द्रव्य हूँ और ये विभावकी पर्याय होती है, उससे मैं भिन्न हूँ। वह मेरा स्वभाव नहीं है, लेकिन पुरुषार्थकी मन्दतासे मेरेमें होता है। इसप्रकार दोनोंका विवेक ज्ञानमें रहता है और दृष्टि एक चैतन्यके अस्तित्व पर रहती है। और ज्ञायककी ओर स्वयं प्रतीतका जोर करके उस ओर परिणतिको दृढ करनेका प्रयत्न करे।

मुमुक्षुः- दृष्टि और ज्ञानमें तो निर्विकल्पता ही पकडमें आती है? जब आत्मा पकडमें आता है, तब दृष्टि और ज्ञान तो निर्विकल्प होते हैं।

समाधानः- विकल्प छूटकर जब निर्विकल्प होता है, पहले तो उसे सविकल्पतामें मैं एक ज्ञायक हूँ, ऐसा पकडमें आया। लेकिन जो निर्विकल्प हुआ, ज्ञायकका अस्तित्व ग्रहण किया, फिर उसमें लीनता बढाकर उसका उपयोग स्वरूपमें स्थिर हो जाये, तब ज्ञायक पर दृष्टि है और ज्ञान है वह सब जानता है। ज्ञान स्वयं द्रव्यको जानता है