३०० तो अस्तित्वस्वरूप ही स्वयं है। जो है वह है, स्वयं ही वस्तु है, दूसरा कोई नहीं है। स्वयं गहराईमें जाय तो अपना अस्तित्व ग्रहण हो सके ऐसा है। यह सब शरीरादि दिखाई देता है, बाहरकी वस्तुएँ दिखती है, अन्दरके विभाव परिणामका वेदन होत है, राग-द्वेषादिका। ऐसे आत्मा जाननेवाला है, उस जाननेवालेका अस्तित्व ग्रहण हो सके ऐसा है। स्वयं अन्दर सूक्ष्म होकर प्रज्ञाछैनी द्वारा, प्रज्ञाको-ज्ञानको तीक्ष्ण करके अंतरमें अस्तित्वको ग्रहण करे तो हो सके ऐसा है। परन्तु वह गहराईमें जाता नहीं। इसलिये अपना अस्तित्व ग्रहण नहीं हो रहा है।
अपना अस्तित्व मौजूद ही है। कहीं नहीं गया है, कहीं गुम नहीं गया है। अस्तित्व मौजूद है, परन्तु स्वयं ग्रहण नहीं कर सकता है। प्रयत्न करे तो ग्रहण हो सके ऐसा है। (पुरुषार्थ) मन्द है इसलिये ग्रहण नहीं हो सकता है। प्रयत्न स्वयंको करना रहता है। बारंबार उसीका प्रयत्न करते रहना, बारंबार। थकना नहीं, बारंबार उसीका प्रयत्न हो तो वह पकडमें आये बिना, ग्रहण हुए बिना नहीं रहता। थकना नहीं। धीरजसे आकुलता किये बिना ग्रहण करे तो हो सके ऐसा है। अपनी भावना उग्र हो तो पुरुषार्थ हुए बिना रहता नहीं।
मुमुक्षुः- इतने ... लिये हैं, अब तो हुए बिना छूटकारा ही नहीं है।
समाधानः- गुरुदेवने यह मार्ग बताया है, गुरुदेवने वाणी बरसायी, अपूर्व वाणी बरसायी, उसे ग्रहण हुए बिना कैसे रहे? स्वयं पुरुषार्थ करे तो हो सके ऐसा है। ग्रहण करने जैसा है। ज्ञायक, मैं ज्ञायक ही हूँ, यह शरीर मेरा नहीं है। शरीर परद्रव्य है, रोग सब शरीरमें आते हैं। ज्ञायकमें नहीं आते हैं। ज्ञायक तो शाश्वत है। ज्ञायककी भावना, जिज्ञासा, ज्ञायककी महिमा, मैं तो ज्ञायक ही हूँ, ज्ञायककी ओर रटन रखना। उसीका अभ्यास, उसका चिंतवन वही करने जैसा है। शुभ भावनामें देव-गुरु-शास्त्रका स्मरण और अन्दर ज्ञायकका स्मरण। मैं ज्ञायक ही हूँ, यह शरीर मैं नहीं हूँ। मैं चैतन्यदेव ज्ञायक हूँ। वह ग्रहण करने जैसा है।
मुमुक्षुः- ... किस विधेसे अन्दर करना?
समाधानः- ज्ञान प्रसिद्ध है तौ आत्मा प्रसिद्ध होता है। परन्तु ज्ञान प्रसिद्ध है, उसे स्वयं पहचाने। ज्ञानलक्षण द्वारा आत्माको पहचाने तो प्रसिद्ध हो न। आत्मा तो प्रसिद्ध ही है, लेकिन प्रसिद्धिमें लाना वह तो स्वयं पुरुषार्थ करे तो होता है। ज्ञान प्रसिद्ध लक्षण है, उस लक्षण द्वारा लक्ष्यको पहचाने, द्रव्यको पहचाने। उसकी प्रतीत करे, उसमें लीनता करे, उसका यथार्थ ज्ञान करे तो प्रसिद्धिमें आये। स्वयं पुरुषार्थ करे नहीं तो कैसे प्रसिद्ध हो? प्रसिद्ध ही है। उसका लक्षण तो प्रसिद्ध ही है। लेकिन प्रसिद्धिमें लाना वह अपने हाथकी बात है।