अमृत वाणी (भाग-२)
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समाधानः- मुख्यरूपसे यह शरीर, द्रव्यकर्म और भावकर्म, शुभाशुभ विकल्प। गुण और पर्याय तो जो शुद्ध पर्याय और गुण, कोई अपेक्षासे उसे पर कहनेमें आता है। वास्तविक रूपसे ऐसे परमें नहीं आते हैं। गुण अपने चैतन्यके साथ एकमेक हैं। और पर्याय, चैतन्यकी परिणति परिणमित होकर पर्याय होती है, शुद्ध पर्याय। उसे द्रव्यदृष्टिके जोरमें पर कहनेमें आता है। उसके भेद पडे, विकल्पके भेदमें अटकना नहीं। परन्तु वह वास्तवमें अपने वेदनसे भिन्न नहीं है। वह अलग है, उसमें विवेक करना पडता है।
प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!
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