Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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ट्रेक-

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तो। अंतर खटक रहनी चाहिये कि यह सब है, वह सारभूत नहीं है। अन्दर स्वयंको होवे नहीं, लेकिन खटक तो लगनी चाहिये कि यह सब सारभूत नहीं है, सारभूत तो मेरा आत्मा है। ऐसे खटक लगनी चाहिये। उसका अर्थ यह है कि ज्यादा खटक होनी चाहिये। मात्र खटकसे कुछ नहीं होता, इसलिये तीव्र खटक लगनी चाहिये।

... कार्य कहाँसे आये? कारण थोडा (हो तत) कार्य नहीं आता। जितना उसका कारण दे उतना ही कार्य आये। अन्दर जितनी स्वयंको लगी हो, अन्दर जिज्ञासा, लगनी लगी हो, उतना अन्दर स्वयं पुरुषार्थ करे तो कार्य आये। कारण बिना कार्य कहाँसे आये? आनन्द (आदि) सब आत्मामें ही भरा है। बाहर जाता है उतनी स्वयंकी क्षति है कि बाहर एकत्व होकर, तन्मय होकर जाता है।

... साधकको अवलम्बन तो दृष्टिमें होता है। श्रद्धाके अन्दर शुद्धात्म द्रव्यका आलम्बन होना चाहिये। जो शुद्धात्मा अनादिअनंत स्वयं द्रव्य वस्तु है, वह वस्तु शुद्ध स्वरूप ही है। उस वस्तुका अवलम्बन साधकको होता है। अर्थात मूल अवलम्बन तो उसे शुद्धात्माका है, परन्तु अंतरमें स्थिर नहीं हो सकता है इसलिये उपयोग बाहर आता है। इसलिये बाहरमें देव-गुरु-शास्त्रके शुभभावमें है। और शुभभावका अवलम्बन है वह व्यवहारमें है। अंतरमें निश्चयका अवलम्बन शुद्धात्माका है। बाहरमें शुभभावमें बाहर आये तो जिनेन्द्रदेव, गुरु और शास्त्र (का अवलम्बन होता है)। परन्तु मूल अवलम्बन तो शुद्धात्माका है। उसे द्रव्य पर ही दृष्टि रहती है। ज्ञायक पर ही दृष्टि रहती है (कि) मैं यह शुद्धात्मा हूँ। उसके सिवा सब मुझसे भिन्न है, सब पर है।

... मैं ज्ञायक ही हूँ, इस प्रकार ज्ञायक पर ही दृष्टि (रहती है)। बाहरमें उपयोग जाये तो भी उसकी दृष्टि तो ज्ञायक पर ही रहती है। बाहर शुभभाव आये तो भी उसे दृष्टि तो एक ज्ञायक पर ही रहती है। ज्ञायकका अवलम्बन उसे छूटता ही नहीं। ज्ञायकका आश्रय तो उसे सदा रहता ही है। उपयोग बाहर आये तो शुभभावमें देव- गुरु-शास्त्र, जिन्होंने पूर्णता प्राप्त की ऐसे देव और गुरु जो साधना करते हैं, और शास्त्रोंमें जो वस्तुका स्वरूप बताया है, उसका अलम्बन उसे व्यवहारसे शुभभावमें होता है। परन्तु उस वक्त भी शुभभाव मेरा स्वरूप नहीं है, मैं उससे भिन्न हूँ। ऐसी दृष्टि और ज्ञान उसे साथमें वर्तते हैं। और आंशिक ज्ञायककी परिणति भी साथमें होती है। उसे भेदज्ञानकी धारा सदा वर्तती ही है, बाहर उपयोग आये तो भी।

मैं, इन सब भावोंसे भिन्न शुद्धात्मा हूँ। ज्ञायककी धारा सदा वर्तती है। उदयधारा और ज्ञानधारा दोनों साथमें वर्तती है। बाहरमें शुभभावमें देव-गुरु-शास्त्रका अवलम्बन होता है। अन्दर पूर्णता प्राप्त नहीं हो, अन्दर पूर्णरूपसे स्थिर नहीं हो सकता है, ज्ञायककी परिणति प्रगट हुयी, लेकिन उसमें पूर्ण लीनता नहीं होती है इसलिये उपयोग बाहर