३२० आता है। शुभभावमें देव-गुरु-शास्त्रका अवलम्बन होता है।
मुमुक्षुः- अनुभव नहीं हुआ है, ऐसे जीवकी कैसी परिस्थिति होती है?
समाधानः- जिसे अनुभव नहीं हुआ है, उसे भी मुझे शुद्धात्मा कैसे ग्रहण हो, उसकी जिज्ञासा और रुचि रहा करे। मुझे ज्ञायक कैसे समझमें आये? ज्ञायकका यथार्थरूपसे अवलम्बन (कैसे हो)? मैं शुद्धात्मा हूँ, उसका अवलम्बन मुझे कैसे आये और यथार्थ रूपसे वह परिणति कैसे प्रगट हो, उसकी भावना अन्दर रहे। विचारोंसे निर्णय करे कि मैं ज्ञायक ही हूँ। यह शुभाशुभ भाव मेरा स्वरूप नहीं है। ऐसे विचारसे नक्की किया लेकिन यथार्थ अवलम्बन कैसे हो? उसकी भावना हो, उसकी रुचि रहे, उसकी खटक रहे। उसे निरंतर खटक रहा करे कि मुझे ज्ञायकका अवलम्बन कैस प्राप्त हो? उसकी रुचि रहा करे।
अंतरमें वह प्रगट नहीं हुआ है तो बाहरमें उसे देव-गुरु-शास्त्रका अवलम्बन होता है। भगवानने जो प्राप्त किया, गुुरु साधना करते हैं, शास्त्र मार्ग बताते हैं। शुभभावमें उसे देव-गुरु-शास्त्र (का अवलम्बन होता है), लेकिन अंतरमें उसे खटक रहती है (कि) मुझे शुद्धात्मा कैसे ग्रहण हो? उसे रहता ही है। अंतरमें ऐसी रुचि रहती है। मुमुक्षुको अन्दरसे खटक नहीं जाती कि मुझे शुद्धात्मा कैसे ग्रहण हो? बाहरमें अशुभभावसे बचनेको वह शुभभावमें खडा रहता है। जिनेन्द्रदेवकी महिमा, शास्त्रका चिंतवन, गुरुकी महिमा आदि सब उसे होता है।
सब कायामे जुडता है। जिनेन्द्र देवके, गुरुके, शास्त्रके सब कायामें जुडता है। जिन्होंने प्रगट किया उन पर उसे भक्ति आये बिना नहीं रहती, इसलिये वह सब कायामें जुडता है। भगवानका, गुरुकी प्रभावना, गुरुकी सेवा, गुरुकी भक्ति, गुरुने क्या कहा है, गुरुने क्या मार्ग बताया है, उसके विचार, शास्त्रमें क्या आता है, तत्त्वके विचार अन्दर आते रहे। द्रव्य-गुण-पर्याय, आत्माका स्वरूप, परद्रव्यका क्या स्वरूप, तत्त्वके विचार आते रहे। वह सब उसे होता है। ... पलटता है। अशुभभावमेंसे शुभभावमें दिशा पलटता है और शुद्धात्माकी खटक अन्दर रहा करती है।
मुमुक्षुः- शुद्धात्माकी महिमा..
समाधानः- शुद्धात्मा तो महिमास्वरूप ही है। सब चैतन्यमें भरा है, चैतन्य अनन्त गुणोंसे भरपूर है। अनुपम तत्त्व है। उसे किसीकी उपमा लागू नहीं पडती। जगतके किसी भी पदार्थकी उपमा चैतन्यको-शुद्धात्माको लागू नहीं पडती। उसका ज्ञान अनुपम, उसका आनन्द अनुपम, उसके अनन्त गुण अनुपम। चैतन्य तो अनुपम तत्त्व है, उसे कोई उपमा लागू नहीं पडती। ऐसा अनुपम तत्त्व है। उसकी महिमा उसे आनी चाहिये कि यह सब सारभूत नहीं है, सारभूत मेरा आत्मा है और वह अनुपम है। जगतकी कोई वस्तु