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अनुपम नहीं है। जगतके कोई पदार्थ अनुपम नहीं है कि महिमा योग्य नहीं है। परन्तु मेरा आत्मा एक अनुपम है, जिसे कोई उपमा नहीं दी जाती। ऐसी महिमा आये, अन्दर चैतन्यकी-शुद्धात्माकी महिमा आये, बाहरसे हटे, महिमावाला पदार्थ हो तो यह एक मेरा चैतन्य शुद्धात्मा चैतन्यदेव महिमावंत है।
भगवानने जो प्राप्त किया, गुरु जो साधना करते हैं, वह पदार्थ कोई अनुपम है। गुरुदेव जो वाणीमें कह रहे हैं, आत्माकी महिमा प्रकाशते हैं, शास्त्रमें उसकी महिमा आती है, शास्त्रमें उसका स्वरूप आये, गुरुकी वाणीमें आये वह पदार्थ कोई अलग है। ऐसे अंतरमेंसे स्वयं विचार करके नक्की करके उसकी स्वयंकी महिमा अंतरमें आये। अर्थात उसे प्रगट करनेका स्वयं प्रयत्न करे। उसके बिना चैन पडे नहीं। उसीकी लगनी लगे, उसीका बारंबार रटन, याद (करे), बारंबार उसके विचार करे।
मुमुक्षुः- .. आत्माकी महिमा-ज्ञायककी महिमा और बाहरमें देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा। एक स्व है और एक पर है। अभिप्रायमें दोनों महिमा एकसाथ कैसे टिक सके?
समाधानः- अभिप्राय चैतन्यका है। अभिप्रायमें चैतन्यकी महिमा है और देव- गुरु-शास्त्रकी उसे महिमा तो है। महिमावंत पदार्थ तो मैं हूँ और महिमावंत पदार्थ जो है उसे देव-गुरु-शास्त्रने प्रगट किया है। इसलिये उसकी महिमा उसे आती है। दोनों साथ टिक सकते हैं। बाहरका जो है वह तो उपयोगरूप होता है। यह अंतर अभिप्रायमें है। अभिप्रायमें शुद्धात्माकी महिमा (है)।
जो शुद्धात्मा है वह महिमावंत है। ऐसा महिमावंत पदार्थ भगवानने प्राप्त किया है और गुरु उसकी साधन कर रहे हैैं, शास्त्रोंमें उसका वर्णन आता है। इसलिये उसकी महिमा आये बिना रहती ही नहीं। जिसकी महिमा मुझे लगी, वह महिमावंत पदार्थ जिसने प्राप्त किया, उस पर उसकी महिमा आये बिना नहीं रहती। उनको वह दिखाई देता है, अन्दरमें स्वयं तो नहीं देख सकता है। अंतरमें स्वयं विचार करके अंतरमें जाये तब उसे उसकी स्वानुभूति होती है।
यह तो भगवानने प्राप्त किया है, गुरुकी वाणीमें आता है। जिन्होंने प्राप्त किया है उसकी महिमा उसे आती है। ऐसा पदार्थ जिन्होंने प्राप्त किया वे धन्य हैं, वे पूजने योग्य हैं। साथमें रहनेमें कोई दिक्कत नहीं है। वह तो उपयोगमें आता है और यह अन्दर अभिप्रायमें है।
मुमुक्षुः- एक अभिप्रायमें आता है और एक उपयोगमें आता है। इस प्रकार दो प्रकारमें फर्क पडा।
समाधानः- हाँ, दो प्रकारमें फर्क है। श्रद्धा दोनों पर है। श्रद्धामें दोनों है। शुद्धात्मा