Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 332 of 1906

 

अमृत वाणी (भाग-२)

३३२ उसे ज्ञायककी परिणति चालू रहती है। ऐसी परिणति हो, उसके बाद उसकी लीनता आंशिकरूपसे बढती जाय, उसकी उग्रता होती जाय, लीनता होती जाय तब मुनिदशा आती है। उसमें अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें स्वानुभूतिमें-स्वयमें लीन हो जाय और अंतर्मुहूर्त बाहर आया कि तुरन्त अंतरमें जाते हैं। ऐसी दशा है। उसका फल है कि ज्ञायककी परिणति प्रगट हो।

मुमुक्षुः- ज्ञायकका रस कैसे प्रगट हो?

समाधानः- रस (तो) स्वयं पुरुषार्थ करे कि ज्ञायकमें ही सर्वस्व है, अन्य कहीं नहीं है। ज्ञायककी महिमा आनी चाहिये। ज्ञायकमें ही सर्वस्व है। ज्ञायक पूरा चैतन्य पदार्थ कोई अदभुत है। बाहरमें कहीं भी रस लगे नहीं, ज्ञायकका रस लगे। ज्ञायककी प्रतीति दृढ होनी चाहिये।

मुमुक्षुः- कार्य तो सब पर्यायमें होता है और ज्ञायकका लक्ष्य हो, यह दोनों एक समयमें होता है?

समाधानः- कार्य भले पर्यायमें हो, द्रव्य अनादिअनन्त (रहता है)। दृष्टिका विषय द्रव्य पर है और दृष्टि स्वयं पर्याय है। द्रव्य और पर्याय, दोनों वस्तुका ही स्वरूप है। द्रव्य अकेला पर्याय बिनाका नहीं है। द्रव्य, गुण और पर्याय वस्तुका ही स्वरूप है। भले पर्यायमेें कार्य हो, परन्तु उसका विषय द्रव्य है। परन्तु पर्यायने पूरे आत्माको ग्रहण किया है, द्रव्यको ग्रहण किया है। दृष्टिका जोर, श्रद्धाका बल-प्रतीतका बल, उसका विषय द्रव्य है। उसके लक्ष्यमें पूरा द्रव्य है। स्वयं पर्याय है, उसका लक्ष्य द्रव्य पर है।

मुमुक्षुः- ऐसा कैसा अहंम आता होगा कि द्रव्य सर्वस्व भासित होता है?

समाधानः- अंतरमें सर्वस्व द्रव्य ही है। जीवमें एक श्रद्धा नामका गुण है। वह श्रद्धा करे तब एक वस्तु पर ऐसे जोरसे श्रद्धा कर सकता है। एकको ग्रहण करे। अनन्त शक्तिओँसे भरपूर ऐसे द्रव्यको एकको, अनन्त शक्तिसे भरपूर द्रव्य अभेद है। उसे लक्ष्यमें लेकर, बिना विकल्प, जिसमें कोई विचारोंका भेद नहीं है, ऐसे द्रव्यको लक्ष्यमें, प्रतीतमें, लक्ष्यमें लेती है श्रद्धा। वह श्रद्धाका बल है। चैतन्यमें ऐसा एक श्रद्धागुण है। उसके कारण पूरा द्रव्य लक्ष्यमें रहता है, वह श्रद्धाका बल है।

उसके साथ ज्ञान भी ऐसा काम करता है। ज्ञानमें भी उतना बल आता है। ज्ञान सब जानता है। द्रव्य-गुण-पर्यायका स्वरूप (ज्ञान जानता है) और श्रद्धा एक वस्तुको (ग्रहती है)। श्रद्धाका बल-जोर तो एक पर ही है। ऐसा चैतन्यमें गुण है। उसकी श्रद्धा करे तो उसमें अनन्त बल आता है। वह श्रद्धाका बल (है)। अनेक फेरफार हो तो भी श्रद्धाका बल टूटता नहीं, ऐसा अनन्त बल श्रद्धामें होता है। ऐसा उसने आश्रय किया है। अनन्त शक्तिसे भरपूर ऐसे द्रव्यका आश्रय किया, उस आश्रयमें उसे अनन्त