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जो विभावकी परिणति होती है, वह पुरुषार्थकी मन्दतासे होती है, परन्तु विभाव मेरा स्वभाव नहीं है, मैं तो ज्ञायक हूँ। ज्ञायक हो जाऊँ, यह क्रमबद्धका फल है। पहले आंशिकरूपसे ज्ञायक हो, बादमें लीनता बढते-बढते पूर्ण ज्ञायक हो, वह उसका- क्रमबद्धका फल है।
भगवानने जिसके भव नहीं देखे हैं, पुरुषार्थपूर्वक जो स्वयंकी ओर आता है, उसके भव नहीं देखे हैं। आगे बढनेवालेके हृदयमें ऐसा होता है कि मैं पुरुषार्थ करके आगे बढूँ। ज्ञायक हो जाऊँ। क्रमबद्धका यह फल है कि मैं ज्ञायक हो जाऊँ। कर्ताबुद्धि छूटकर ज्ञायक हो जाय, यह उसका फल है। जिसकी ज्ञायककी ओर परिणति जाय, उसका क्रमबद्ध ज्ञायककी ओरका होता है। उसे ही स्वानुभूतिकी दशा होती है।
मुमुक्षुः- बहिनश्री! वर्तमानमें ज्ञायककी ओरका भाव करे फिर भी सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होता है, उसका क्या कारण है?
समाधानः- भाव करनेसे सम्यग्दर्शन नहीं होता, भावना करे वह एक अलग बात है और ज्ञायककी परिणति प्रगट करनी चाहिये तो सम्यग्दर्शन होता है। ज्ञायककी परिणति मात्र भावना करनेसे नहीं होती। भावना करे उस अनुसार अपनी परिणति होनी चाहिये। मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, ऐसे शब्दसे बोले, विकल्प करे, भावना करे, भावना करे वह ठीक है, परन्तु ज्ञायकरूप ज्ञायककी परिणति हो तो सम्यग्दर्शन होता है।
ज्ञायकरूप ज्ञायककी परिणति होकर उसमें लीन हो जाय तो विकल्प टूट जाय, निर्विकल्प दशा हो तो होता है। ज्ञायक, मात्र भावनासे नहीं होता। भावना कररके पुरुषार्थ करना चाहिये। ज्ञायकरूप परिणति प्रगट करनी चाहिये। विभावकी परिणति आये एकत्व हो जाता हो, एकत्व हो जाय और मैं ज्ञायक हूँ, ऐसा करे, भले वह भावना करे, भावना करे उसकी कोई दिक्कत नहीं है, परन्तु ज्ञायककी परिणति यथार्थ होनी चाहिये, तो यहाँ सम्यग्दर्शन होता है। परिणति हुए बना सम्यग्दर्शन होता नहीं। भेदज्ञानकी धारा अंतरमेंसे प्रगट होनी चाहिये। क्षण-क्षणमें जितनी विकल्पकी पर्याय आये उससे भिन्न रहकर, मैं ज्ञायक हूँ, मैं ज्ञायक हूँ, ऐसी अपनी परिणति प्रगट होनी चाहिये।
क्रमबद्धका फल वह है कि ज्ञायक हो जाना। ज्ञायक हो जाउँ, उसमें पुरुषार्थ साथमें आ जाता है। ज्ञायक हो जाउँ, वह पुरुषार्थ साथमेंं आ गया। वह क्रमबद्धका (फल है)। मैं कुछ नहीं कर सकता, मैं ज्ञायक हूँ, ऐसे बोलनेमात्र नहीं, अंतरमें ज्ञायक हो जाय। सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र हो। द्रव्य पर दृष्टि हो, उस प्रकारका ज्ञान हो, ज्ञायककी परिणति हो, आंशिक लीनता हो। सम्यग्दर्शनमें स्वरूपाचरण चारित्र आंशिक होता है। ज्ञायककी परिणति प्रगट हो। चाहे जो भी कार्यमें, किसी भी परिणाममें उसे ज्ञायककी परिणति मौजूद होती है। भेदज्ञानकी धारा जागते-सोते, स्वप्नमें, खाते-पीते, हर वक्त