३३० है। सब क्रमबद्ध (है)। परपदार्थ सब क्रमबद्ध, सर्वकी पर्यायसे सब परिणमते रहते हैं। उसमें क्रमबद्धमें कर्ताबुद्धि छूट जाय कि मैं कुछ कर सकता हूँ और मुझसे सब होता है, ऐसी जो कर्ताबुद्धि है कि मैं सबका कर सकता हूँ, ऐसी कर्ताबुद्धि छूट जाय, वह उसका लाभ है। जैसे बनना होता है वैसे बनता है। स्वयं कुछ नहीं कर सकता।
अंतरमें पुरुषार्थके साथ क्रमबद्धका सम्बन्ध है। बाहरमें अपना पुरुषार्थ काम नहीं आता। बाहरके परपदार्थका परिणमन जैसे होना होता है वैसे ही परिणमन होता है। परन्तु अंतरमें जो विभावसे (भिन्न होकर) स्वभावमें जाना, उसमें स्वयंका पुरुषार्थ काम आता है। परन्तु वह पुरुषार्थ स्वयं अपनी ओर झुके, उसमें भी जैसे बनना होगा वैसे होगा (ऐसा नहीं)। वह पुरुषार्थके साथ सम्बन्ध रखता है, वह क्रमबद्ध। वह क्रमबद्ध ऐसा है कि स्वयं पुरुषार्थ करके ज्ञायकको पहचाने। ज्ञायकको पहचाने वह स्वयं पुरुषार्थसे पहचानता है।
अनादि कालसे जो बाह्य दृष्टि है, उसमें ज्ञायककी ओर दृष्टि बदलता है, पुरुषार्थसे। पुरुषार्थसे अर्थात पुरुषार्थ किया कि जैसे बनना था वैसा बना, ऐसे पुरुषार्थके साथ सम्बन्ध है। कोई द्रव्यको स्वयं पलट नहीं सकता। उसकी पर्याय पलटनेका स्वभाव है इसलिये पलटती है। पलटनेका स्वभाव नहीं था और स्वयंने पलटायी ऐसा नहीं है। उसकी पर्यायका स्वभाव पलटे, परन्तु पुरुषार्थ उसमें काम करता है। ऐसा पुरुषार्थका और क्रमबद्धका सम्बन्ध है। भगवानने भव देखे इसलिये स्वयं पुरुषार्थ नहीं कर सके ऐसा नहीं है। स्वयं पुरुषार्थ करे, पुरुषार्थ करे उसके ही भगवानने भव नहीं देखे हैं, उसका ही क्रमबद्ध वैसा है। पुरुषार्थके साथ क्रमबद्ध सम्बन्ध रखता है।
जो पुरुषार्थ होता है, स्वयं अपनी ओर झुकता है, भेदज्ञान करता है, उसमें नियत, स्वभाव, काल और अपना पुरुषार्थ, सब कारण एकठ्ठे होते हैं। उसमें पुरुषार्थ भी साथमें होता है। कोई ऐसा कहे कि पुरुषार्थ किये बिना होता है, ऐसा उसका अर्थ नहीं है। पुरुषार्थके साथ क्रमबद्ध सम्बन्ध रखता है। जिसके दिलमें ऐसा हो कि मैं पुरुषार्थ करके (प्राप्त करुं)। स्वयं जिज्ञासा करे, भावना करके मैं अपनी ओर जाऊँ। ऐसी भावना करे उसका ही क्रमबद्ध स्वयंकी ओर होता है। उसके ही भवका अभाव होता है।
वह माने कि जैसे होना होगा वैसा होगा, अपने कुछ भी करें। ऐसा नहीं होता। जिसकी कर्ताबुद्धि छूटी, उसका अर्थ कि वह स्वयं ज्ञायक हो जाना चाहिये। तो उसका फल है। स्वयं उदासीन ज्ञाता हो जाय, बादमें जैसे होना होगा वैसे होगा। ज्ञायक परिणति होनी चाहिये। मैं तो ज्ञायक हूँ, किसीके भी साथ एकत्वबुद्धिसे जुड जाऊँ ऐसा मेरा स्वभाव ही नहीं है। मैं तो ज्ञायक हूँ, यह क्रमबद्धका फल है। ज्ञायक हो जाना, वह उसका फल है। उदासीन ज्ञायक।