मुमुक्षुः- हम अमरिकामें धर्म प्रचार करें तो उसका दूसरा कोई परिणाम आये उसका दोष हमें लगे? हम तो हमारी भावना अच्छी रखकर लोगोंको समझाते हैं कि यह करने जैसा है। अमरिकन लोग कैसे उसका पालन करे, उसके दोषका विचार...
समाधानः- धर्मसे कभी दोष होता है क्या? धर्म तो, स्वयंको जो रुचि हो वह कहे। उसमेंसे विपरीत अर्थ करे तो उससे क्या दोष होता है? उसका दोष वह करता है। दोष हो ऐसा कहाँ आता ही है? दोष क्या करे? धर्मसे कभी दोष होता नहीं। दोष तो वह स्वयं करते हैं। धर्म तो बाहरमें सब सज्जनताकी बात आये और अंतरमें आत्मा कैसे पहचानमें आये, वह होता है। यहाँ तो अहिंसा, सत्य आदि सब होता है। वहाँ तो अहिंसा होती ही नहीं। वह सब तो हिंसामें समझते हैं।
मुमुक्षुः- वहाँ वह लोग भी समझनेके लिये तैयार है। आत्माकी बात सुननी उन लोगोंको अच्छी लगती है।
समाधानः- समझे वह तो ठीक, बाकी स्वयं स्वयंका करना। समझे तो ठीक है। उसका परिणाम-धर्मका दूसरा कुछ नहीं आता, वह तो अपनी गलतफहमीसे उसका अर्थ करे। यहाँ तो सब सज्जनताके गुण होते हैं। वहाँ वह सब कहाँ होता है? कुछ नहीं है। वह तो अभी सज्जनताकी (बात है), वहाँसे आगे अन्दर आत्माको पहचानना तो अलग रह जाता है। ऐसी सज्जनता भी बहुत बार की, परन्तु अन्दर आत्मा भिन्न है उसे पहचानना बाकी रहता है। अभी तो सज्जनता भी नहीं है, वहाँ आत्मा क्या समझमें आये? अभी तो हिंसामें पडे हैं, वहाँ आत्मा समझना कितना मुश्किल है। ऐसी पात्रता तो होनी चाहिये न। दया, शांति, समता, क्षमा आदि सब होना चाहिये, बाहरमें तो होना चाहिये न। ऐसा तो उन लोगोंमें होता नहीं और आत्मा समझनको तैयार हुए हैं। ... संसारका स्वरूप तो ऐसे ही चलता रहता है।
मुमुक्षुः- क्रमबद्धपर्यायका तात्पर्य क्या है? और ... क्या लाभ होता है?
समाधानः- क्रमबद्धपर्यायसे लाभ यह होता है कि कर्ताबुद्धि छूटती है। स्वयं कुछ नहीं कर सकता है। सर्व पदार्थ-द्रव्य स्वतंत्र परिणमते हैं। सर्वके द्रव्य-गुण-पर्याय, आत्मा अनादिअनन्त शाश्वत है, उसके गुण अनादिअनन्त, उसकी पर्याय स्वयंके पुरुषार्थसे होती