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समाधानः- ज्ञान है वह प्रकाश करता है (अर्थात) सब वस्तुओंका ज्ञान करता है कि वस्तु स्वरूप यह है। और श्रद्धा है वह उसे बराबर नक्की करती है। पाचक अर्थात उसे पचाती है। जहाँ वस्तु है, वहाँ उसकी दृष्टिको स्थिर करता है, श्रद्धा करता है। एक वस्तु पर स्थिर हो जाती है। और ज्ञान है वह वस्तु स्वरूप है उसे चारों ओरसे जानता है। और दृष्टि एक पर (स्थिर हो जाती है)।
... स्वयं अपनेसे करे तो होता है। वहाँ पढना। यहाँके शास्त्र हो, गुरुदेवके प्रवचन जो समझमें आये वह पढना। पढनके लिये कुछ समय रखना, कुछ पढना। अंतर आत्मामें रुचि रखनी कि यह सब तो बाहरका संसार तो चलता ही रहता है। अन्दर आत्मामें भवका अभाव कैसे हो, करने जैसा तो वह है। इसलिये भवका अभाव कैसे हो, उसका विचार करना, वांचन करना। जो समझमें आये वह पढना। जो सुना हो उसका विचार करना।
आत्मा भिन्न, यह शरीर भिन्न, सब भिन्न है। आत्मा शाश्वत है, यह सब आकुलता होती है वह आत्माका स्वरूप नहीं है। आत्मा सिद्ध भगवान जैसा है। उसका भेदज्ञान कैसे हो, आत्मा कैसे पहचानमें आये, उसका बारंबार विचार करते रहना। उसे समझनेके लिये वांचन करना। वहाँ दूसरा तो क्या हो सकता है? अन्दर स्वयं आत्माकी रुचि रखे तो होता है। अन्दरमें स्वयं रखे। वहाँ बाहरके साधन तो कोई है नहीं, देव- गुरु-शास्त्रके कोई साधन नहीं है, मन्दिर नहीं है, देव, गुरु (नहीं है)। शास्त्र समझनेके लिये कोई साधर्मी हो, ऐसा मिलना भी मुश्किल पडे। अपनेसे जो समझमें आये वह पढना। कोई हो तो भी कितने दूर-दूर रहते हैैं।
... सोनगढका माहोल तो कुछ अलग ही है, परन्तु यहाँ तो देव-गुरु-शास्त्रके कुछ प्रसंग मिले, लेकिन वहाँ तो कुछ मिले ऐसा नहीं है। आत्माकी रुचि रखनी, भवका अभाव कैसे हो? मनुष्य जन्म मुश्किलसे मिलता है। यह मनुष्य जन्म ऐसे पैसेके लिये या दूसरेके लिये नहीं है, परन्तु आत्माका स्वरूप कैसे पहचानमें आये? भवका अभाव कैसे हो? उसका विचार करना। अन्दरसे निर्लेप रहना, जितना बन सके उतना वैराग्य रखना और पढना। दूसरा कोई उपाय नहीं है। स्वयंसे जितना हो उतना करना।