३३४ रहता है। अर्थात कोई शाश्वत वस्तु है। वह ज्ञान क्षणिकमात्र नहीं है, परन्तु ज्ञानगुणवाला एक पदार्थ है।
उस पदार्थको पहचाननेके लिये, ज्ञान बराबर उसे पहचान सकता है। परन्तु पहले तो विचार करके प्रथम भूमिकामें ज्ञानको विचारसे, अनुमानसे, प्रमाणसे, युक्ति, न्यायसे भी उसे पहचान सकता है। परन्तु युक्ति, न्याय ऐसे होते हैं कि स्वभावके साथ मिलान करके (नक्की करता है)। युक्ति, न्याय ऐसे होते हैं कि टूटे नहीं। अटूट होते हैं। कल्पना जैसा अनुमान प्रमाण नहीं, परन्तु उसके स्वभावके साथ मिलान करके, ज्ञानलक्षणके साथ मिलान करके, प्रमाणसे, अनुमानसे बराबर नक्की कर सकता है। यथार्थ अनुमान। वह अनुमान झूठे नहीं पडते।
शास्त्रमें आता है न? जहाँ धुँआ होता है, वहाँ अग्नि होती है। ऐसे उसके कुछ अनुमान एकदम यथार्थ होते हैं। वैसे ज्ञानलक्षण जो जाननेवाला है वह मैं हूँ, वह जाननेवाला कौन है? उस स्वयंको अन्दर स्वानुभूतिकी बात अलग है, आत्माकी अनुभूति, परन्तु अमुक लक्षण उसे स्वयंके वेदनमें है कि यह ज्ञानलक्षण जाननेवाला मैं हूँ, यह विकल्प सब चले जाते हैं, फेरफार होते हैं। परन्तु जाननेवाला खडा है। वह स्वयं ऐसा विचार करे तो स्वयंको जान सके ऐसा है। स्वानुभूतिकी बात अलग है।
ज्ञानलक्षणवाला आत्मा कोई अलग है और वह स्वयं अमुक स्वभावसे विचार करे, अमुक शास्त्रमें, अमुक गुरुदेवकी वाणीके साथ मिलान करे, स्वयंको अनुभूति नहीं है तो महापुरुषकी श्रद्धा रखकर वे क्या कहते हैं? उसके साथ स्वयंके विचारोंका मिलान करके नक्की कर सकता है कि यह कोई महिमावंत पदार्थ है। युक्ति, न्याय ऐसे होते हैं कि टूटे नहीं। अपने स्वभावके लक्षणके साथ मिलान करके (नक्की करे)। ज्ञानलक्षण है। उसमें आत्माका शांति, आनन्द स्वभाव है। शांति, आनन्दको इच्छता है, बाहरसे कहींसे मिलता नहीं। तो वह किस पदार्थमें रहे हैं शांति और आनन्द? शान्ति, आनन्द कोई पदार्थके गुण हैैं कि जो बाहरसे नहीं मिलते, तो भी वह बाहरसे ढूँढना चाहता है। वह अंतरमें ही रहे हैं। इस प्रकार स्वयं अंतरसे विचार करे तो वह यथार्थ प्रकारसे नक्की कर सके। और वह नक्की ऐसा होता है कि उसमें भूल नहीं होती, उसे कोई तोड नहीं सकता। ऐसे अटूट न्याय, युक्तसे ग्रहण कर सके।
पहले तो उसे युक्त, प्रमाणसे नक्की करे। उसकी महिमा, स्वानुभूतिकी दशा तो प्रगट नहीं है, परन्तु युक्ति, न्यायसे भी महिमा ला सकता है। जो इतना जाननेवाला है, जिसका स्वभाव ज्ञान है, उस ज्ञानमें नहीं जानना ऐसा कुछ आता ही नहीं, जो ज्ञान हो उसमें ज्ञान ही होता है। फिर इतना जानना, उतना जानना ऐसा नहीं होता। ज्ञानस्वभाव है वह अनन्त-अनन्त ज्ञानसे भरा है। उसमें पूरे लोकालोकके द्रव्य-गुण-