होते हैं। अंतर दृष्टि करे, शुद्धात्माको पहचाने तो शुभाशुभभावसे भिन्न आत्मा है। दोनों भाव उसमें नहीं है, आकुलतास्वरूप है।
पहचाननेका निश्चय करे तो पहचान सके ऐसा है। लेकिन पहचानता ही नहीं। स्वयंकी भूल है। "निज नयननी आळसे, निरख्या नहीं हरिने जरी।' स्वयं ही हरिको पहचानता नहीं। अपनी आलसके कारण अनन्त काल व्यतीत किया। यह मनुष्य भव मिला, उसमें ऐसे गुरुदेव मिले, तो स्वयं पुरुषार्थ करके पहचाने तो पहचान सके ऐसा है। अपने पुरुषार्थकी कमी है।
मुमुक्षुः- शुभाशुभ भाव जल्दी हृदयगत हो जाते हैं, भावभासनसे समझमें आते हैं। वैसे इसका भावभासन कैसे हो कि यही परमात्मा है?
समाधानः- शुभाशुभ भावोंमें अनादिसे एकत्वबुद्धि कर रहा है और अपने वेदनमें आ रहे हैं, इसलिये उसे ख्यालमें आता है। परन्तु यह तो स्वयं विचार करे तो पहचान सके ऐसा है। जो शुभाशुभ भाव होते हैं, वह सब तो चले जाते हैं, उसके पीछे जो जाननेवाला है, वह जाननेवाला तो वैसे ही खडा रहता है। जाननेवाला है वही मैं हूँ। जाननेवाले पर दृष्टि करे, उसमें सूक्ष्म उपयोग करके देखे तो जाननेवाला जाननेमें आये ऐसा है।
जाननेवाला स्वयंको क्यों नहीं ज्ञात हो? जाननेवाला स्वयंको जान सके ऐसा है। परन्तु पहचानता नहीं। अपनी भूलके कारण लगनी लगाता नहीं, जिज्ञासा करता नहीं, इसलिये उसका भावभासन नहीं हो रहा है। उसके भाव अन्दर हृदयगत हो सके ऐसा है, परन्तु पहचानता नहीं है।
अनेक जीव भेदज्ञान करके मोक्षमें गये हैैं। अनन्त जीव उसी मार्गसे जाते हैं। परन्तु स्वयं ही भेदज्ञान करता नहीं। भेदविज्ञानके अभावसे मोक्षमें जाते नहीं। जो जाते हैं वे भेदविज्ञानसे ही जाते हैं। अनन्त गये हैं। अनन्त जीवका सबका स्वभाव एक ही जातिका है। सिद्ध भगवान जैसा सबका स्वभाव है। वह नहीं हो सके ऐसा नहीं है। अनन्त जीवोंने अपना स्वरूप पहचानकर, स्वानुभूति करके, चारित्र एवं केवलज्ञान प्रगट कर मोक्षकी साधन की। अनन्त जीवोंने। प्रत्येकका स्वभाव एक ही जातिका है। सब कर सकते हैं, न कर सके ऐसा नहीं है।
.. आत्मा सारभूत है, बाकी सब निःसार है। बडे राजा और चक्रवर्तीओंको भी संसारका स्वरूप ऐसा लगा कि संसार छोडकर चले जाते थे। अंतरमें आत्माका कल्याण करते थे। क्योंकि इस संसारका स्वरूप तो ऐसा ही है। चक्रवर्तीओंको कोई नहीं बचा सकता और देवलोकके देवोंको भी कोई नहीं बचा सकता। जल्द या देरसे, सबका आयुष्य तो पूरा ही होनेवाला है। इसलिये इस मनुष्य जीवनमें आत्माका कल्याण करना,