३४४ सकता। स्वयं बदले और स्वयं ज्ञायकका आश्रय ले तो होता है। देव-गुरु-शास्त्र सब निमित्त महा बलवान होते हैं। परन्तु उपादान स्वयंका होता है। यदि स्वयं तैयार नहीं हो और यदि स्वयं ग्रहण न करे तो निमित्त निमित्तरूपसे निमित्तमें रह जाता है। बाकी स्वयं ग्रहण करे तो होता है। पुरुषार्थमें बल आता है। वह बल तुझे ही प्रगट करना है।
... भाव तो अन्दर लगनी लगनी चाहिये न। दूसरी लगनी... भवका अभाव कैसे हो? लगनी तो एक ही होती है। इतने साल बीत गये, अब इतने साल बीतनेमें कहाँ देर लगेगी? ऐसा होता था। पंद्रह गये, इतने गये, बीस, पचीस होनेमें कहाँ देर लगेगी? अभी तो कुछ होता नहीं है। क्या अभी भी परिभ्रमण करना है? अभी दुःख क्यों नहीं लगता है? यह सब क्यों? यह सब क्या? अभी परिभ्रमणकी थकान क्यों नहीं लगती? विभावसे कैसे छूटना?
मुमुक्षुः- बचपनसे ही वही लगनी।
मुमुक्षुः- उसी प्रकारके ही विकल्प आते रहते हैं।
समाधानः- विकल्प नहीं, भावना। भावनाके साथ विकल्प तो होते हैं। भावना उस जातकी, लगनी उस जातकी। खाते-पीते, जागते-सोते, स्वप्नमें एक ही लगनी, दूसरी कोई लगनी नहीं थी। कहीं चैन नहीं पडे।
वहाँ जाती थी, कभीकभार वांकानेरके अपासरेमें जाती थी। वहाँ भी जाती थी। पोषा करती थी, एक-दो बार किये थे। वहाँ पूरा दिन निवृत्ति मिले न? इसलिये वहाँ बैठती। अपसारामें एक ओर कमरा था, वहाँ बैठती थी। फिर बाहर निकलूँ तब दूसरे कोई हो उसके साथ बातचीत करती। बाकी खास कोई बात नहीं करती थी।
मुमुक्षुः- कौन-सा दर्शन सत्य है, उसीकी झंखना थी।
समाधानः- सत्य कौन-सा है? सत्य क्या है? गुरुदेव कहते थे वही सत्य लगता था। अन्दरसे पहचानकर, गुरुदेव स्वभाव कहते हैं वही सत्य है। परन्तु निर्णय करनेके लिये विचार तो स्वयंको आते हैं।
मुमुक्षुः- बहिनश्री! जातिस्मरण कितने साल बाद हुआ?
समाधानः- १९८९की सालमें हुआ न, फिर १९९३की सालमें। चार साल बाद।
मुमुक्षुः- माताजी! एक ही विचार..
समाधानः- विचार नहीं आते हैं, वह विचारसे थोडे ही होता है। विचारसे नहीं होता। अन्दर आत्मामें-स्वरूपकी लीनता करते-करते सहज आता है, वह कोई विचारसे नहीं आता। आत्माकी एकाग्रता आत्मामें करते-करते वह बीचमें आता है। विचारसे नहीं। सहज आ जाता है।
मुमुक्षुः- ..